शिरीष के फूल पाठ के प्रश्न उत्तर आरोह भाग दो कक्षा 12

शिरीष के फूल पाठ के प्रश्न उत्तर आरोह भाग दो कक्षा 12 


1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?

उत्तर– लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत के समान माना है। दोनों में अनेक समानताएँ हैं। अवधूत (संन्यासी) को संसार के सुख-दुख, मोह-माया का कोई लगाव नहीं होता, इसी प्रकार शिरीष भी गर्मी-सर्दी के मौसम में समभाव से जीवित रहता है। एक संन्यासी भगवान ( सृष्टि-कर्ता) से प्रेरणा प्राप्त करके विपरीत और कठोर परिस्थितियों में ध्यान मग्न रहता है। भीषण और विकट गर्मी में भूमि से कुछ भी प्राप्त न होने की स्थिति में शिरीष वातावरण से रस चूसकर सदा हरा-भरा रहता है। शिरीष आँधी-लू और गर्मी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल और अटल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य बिखेरता रहता है। इसी कारण लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है।

2- हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी – कभी जरूरी हो जाती है- प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

उत्तर– गांधी जी ने अपने हृदय में स्थापित कोमल मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए अपने समाज के पाखंडों तथा विदेशी साम्राज्यवादियों के सामने कभी सिर नहीं झुकाया। देश को आजादी जैसा अनमोल उपहार दिलाने के लिए गांधी जी अंग्रेजों के सबसे कठोर और अपराजेय शत्रु बने रहे।इसी प्रकार शिरीष अपने कोमल फूलों को गर्मी के तेज प्रचंड से बचाने के लिए वातावरण में उपस्थित आँधी-लू जैसे प्रकोप से कठोर व्यवहार करता है और पुष्पों की कोमलता बनाए रखने में सफल होता है।

3- द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।

उत्तर– जेठ की जलती घूप में, जब पृथ्वी बिना धुएँ का अग्निकुंड बना है, केवल शिरीष के वृक्ष पर ही फूल खिले होते हैं। शिरीष के वृक्ष पर फूल सबसे लम्बे समय तक रहते हैं- वंसत के आगमन से लेकर भादों के महीने तक। यहाँ जलती धूप, आँधी-लू हमारे समाज में व्याप्त लूटपाट, संघर्ष, कोलाहल, मार-काट, खून-खराबा, भ्रष्टाचार जैसी कुरीतियों का प्रतीक है। व्यक्ति इन परिस्थितियों में शिरीष से प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। शिरीष के समान अपने सिद्धांतों और आदर्शों पर अटल, अविचल रहकर अपना जीवन बड़े सरल व सहज भाव से बीता सकता है।

4- हाय वह अवधूत आज कहाँ है! ऐसा कह कर लेखक ने आत्मबल पर ‘देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?

उत्तर– वर्तमान युग में चारों तरफ देह बल का बोलबाला है। देशों की सरकारें तक देह बल पर आधारित हैं। चारों ओर हत्या, आगजनी, लूट-मार, भ्रष्टाचार, आंतक और बलात्कार जैसी कुरीतियों का साम्राज्य है। सभी अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं। ऐसे में महात्मा गांधी जैसे अवधूत  के आत्मबल का सिद्धांत प्रासंगिक है। इन परिस्थितियों का सामना देहबल से करना व्यर्थ है। जिस प्रकार गांधी जी ने तत्कालिन समाज कीअनेक कुरीतियों को अपने सत्याग्रह जैसी आत्मबल की शक्ति से नष्ट कर दिया था, उसी प्रकार आज का समाज भी इस देहबल को आत्मबल द्वारा ही जीत सकता है।

5. कवि (साहित्यकार ) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय – एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाएँ।

उत्तर– कवि या साहित्यकार का कार्य केवल शब्दों को जोड़ तोड़कर तुकबंदी करना नहीं होता । कवि की शिल्पकला कितनी ही महान् और सुंदर क्यों न हो, यदि उसमें विचारों और भावनाओं की गहराई न हो तो वह व्यर्थ है । दृष्टिगोचर होने वाली सृष्टि उस सृष्टिकर्ता की शक्ति का संकेतमात्र है, उसकी सत्ता सृष्टि के उस पार है। उसकी चेतना के दर्शन करने के लिए, सौंदर्य को वास्तविक रूप में देखने के लिए एक कवि के लिए अनासक्त योगी की स्थिर – प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय आवश्यक हो जाता है। जो सांसारिक प्रपंचों और विडम्बनाओं से ऊपर उठकर इस संसार को सही रास्ता दिखा सके। साहित्य का मुख्य उद्देश्य केवल समाज में घटित घटनाओं का वर्णन करना नहीं होता, बल्कि उसके लिएआदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना होता है। ऐसा एक साधारण व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। उसे एक योगी की अनासक्ति तथा प्रेमी की सरसपूर्णता प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है।

6- सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रहीं स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

उत्तर– सृष्टि का यह एक अटल नियम है कि जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है। बुढ़ापा और नश्वर संसार के अति प्रामाणिक सत्य हैं। एक निश्चित अवधि के बाद हर वस्तु का अंत अनिवार्य है। जड़ता मृत्यु का ही दूसरा नाम है। किसी भी व्यक्ति या वस्तु में जब तक विकसित होने तथा नएपन के स्वागत का मादा हैं, तब तक वह जीवित से मृत्यु इस रह सकता है। एक वृक्ष का फल ज्यों ही वृक्ष से रस लेकर पक जाता है उसका वृक्ष से गिरना तय हो जाता है। वह वृक्ष तभी तक जुड़ा रह सकता, गिरने से बचा रह सकता है, जब तक वह तक वह वृक्ष से रस लेकरअपने आप को विकसित कर रहा होता है। इसी प्रकार एक व्यक्ति जब तक अपने जीवन में कुछ न कुछ प्राप्त करने का प्रयास करता रहता है, अपने प्राणों को उर्ध्वमुखी रखता है, तभी तक चेतना उसके शरीर में विद्यमान रहती है। सामाजिक रूप से भी वही व्यक्ति अधिक सफल और दीर्घजीवी माना जाता है जो अपने व्यवहार में जड़ता नहीं आने देता। नएपन के स्वागत के लिए हमेशा तैयार रहता है। निरतंर बदल रही परिस्थितियों से समन्वय बनाए रखता है। अपने विचारों और सिद्धातों पर अड़कर बैठना ही मृत्यु है। इसलिए जीवित रहने के लिए विचारों की गतिशीलता आवश्यक है

आशय स्पष्ट कीजिए

() दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो काल देवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमेकि मरे।

() जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?….मैं कहता हूँ कि कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।

() फल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।

उत्तर

() प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने जीवन और मृत्यु के संघर्ष का वर्णन किया है। काल सर्वव्यापक है, उसकी कालाग्नि से कोई नहीं बच सकता, लेकिन काल की सर्वव्यापकता के सामने भी जीवन कभी समाप्त नहीं हुआ। स्थिर प्रज्ञ और अनासक्त लोग अपनी गतिशीलता और सत्कर्मों के कारण सदियों तक इस नश्वर संसार में जीवित रहते हैं। जो विकास और प्रगति करने की बात सोचता है, जो जड़ता अर्थात गति हीनता को अपने पास भी नहीं आने देता है वही व्यक्ति जीवित है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, जो इस नियम का पालन नहीं करता, अपनी मूर्खता के कारण अपने ही बनाए बंधनों और पाखंडों में उलझा रहता है यानि एक ही स्थान पर जम जाता है, तो वह मृत्यु को प्राप्त होता है। सर्वव्यापक कालाग्नि का शिकार हो जाता है। वही बच सकता है जो निरन्तर गतिशील है।

() लेखक ने इन पंक्तियों में सत्कवि (साहित्यकार) के लिए निर्धारित किए गए मापदंडों का वर्णन किया है। शब्दों की तुकबंदी कविता नहींहोती। उसके लिए इस संसार से वैराग्य, अनासक्ति और विशाल हृदय की आवश्यकता होती है। जो अपने आप में ही मस्त है, संसार की छोटी-मोटी चिंताओं से बेपरवाह है, सांसारिक मोह-माया, हिसाब-किताब और बंधनों से अपने आप को मुक्त कर चुका है वही फक्कड़ होता है। वह इस संसार से प्यार नहीं करता, उसकी आसक्ति इस संसार की अपेक्षा समाज कल्याण, परोपकार और परमात्मा में होती है। ऐसा ही फक्कड़ व्यक्ति कविता करने में सक्षम होता है। लेखक ने आह्वान किया है कि यदि आप कवि बनना चाहते हो, तो आपको उससे पहले एक अनासक्त योगी और फक्कड़ बनना ही पड़ेगा।

() प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने कहा है कि सृष्टिकर्त्ता की शक्ति सर्वव्यापक और महान है। जो कुछ भी इस सृष्टि में हम देख पा रहे हैं, वह उस शक्ति की ओर संकेत मात्र करता है। वास्तव में वह शक्ति कितनी महान और व्यापक है, यह जानना व्यक्ति के वश से बाहर है। इस संसार की कोई भी वस्तु अपने आप में पूर्ण नहीं है, वह तो सृष्टिकर्त्ता की पूर्णता को दिखाने के लिए संकेत कर रही है। यह दृष्टिगोचर संसार उस अपारशक्ति की माया है, जो इस माया को भेदकर उसके दूसरी ओर देखने की दृष्टि रखता है, वही उसको जान सकता है। उस अपार शक्ति का अस्तित्व इस संसार के पार है।

शिरीष के फूल पाठ के आस पास


1. शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की प्रचंड गरमी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?

उत्तर– शिरीष के फूल को शीत पुष्प कहा जाता है क्योंकि बसन्त ऋतु की तरह ही ज्येष्ठ माह की प्रचण्ड गरमी में भी यह फूल खिला रहता है। वायुमण्डल से रस लेकर हमेशा सरस बना रहता है। लू और उमस में भी सदैव कोमल बना रहता है। इसी कारण ही शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प की संज्ञा दी गई है।

2. कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधी जी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।

उत्तर– कोमल और कठोर दोनों भाव गांधी जी में विद्यमान थे जो उनकी विशेषता बन गये। वे देश व मानवता की सेवा भाव के कारण मन में कोमल भाव रखते थे किन्तु अपने सिद्धान्तों पर अटूट थे। अतः उनमें आदर्शों के प्रति कठोरता थी। वे जीवनभर अपने सिद्धान्तों से नहीं डिगे। वे लोगों केदुःख दर्द को दूर करने के लिए हमेशा डटे रहे। इसीलिए उनके मन में करूणा के साथ-साथ वीरता भी विद्यमान थी।

3. आजकल अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत से किसान साग-सब्जी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।

उत्तर– विद्यार्थी कक्षा में अध्यापक की सहायता से इस विषय पर वाद-विवाद करें।

4. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पाठ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्त्व व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे हैं- कुटज, आम फिर बौरा गए, अशोक के फूल, देवदारु आदि । शिक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढिए और पढ़िए ।

उत्तर– विद्यार्थी स्वयं करें।

5. द्विवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यूनहोती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व बढ़ गया है। प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है या उपेक्षामय इसका मूल्याँकन करें?

उत्तर– द्विवेदी जी की वनस्पतियों के प्रति रूचि का कारण उनका प्रकृति प्रेमी होना हो सकता है। सहृदय व्यक्ति प्रकृति से प्रेम करता है। प्रकृति जीवन की प्रेरक शक्ति है। इसीलिए लेखक ने प्रकृति को अधिक से अधिक अपनी रचनाओं का विषय बनाया होगा। प्रकृति के दृष्टान्त केमाध्यम से लेखक ने अपने विषय को सुरुचिपूर्ण एवम् सशक्त भी बनाया है। आज प्रकृति के प्रति हमारा कर्त्तव्य बनता हैं कि रचना – फलक पर घटते हुए प्रकृति के महत्त्व को दुबारा स्थापित करें। प्रकृति के प्रति हमारा दृष्टिकोण सुरुचिपूर्ण है क्योंकि प्राकृतिक सौंदर्य हमें आकर्षित करता है। इसीलिए इसी आकर्षण के वशीभूत व्यक्ति पर्वतीय स्थानों की यात्रा करना अधिक पसंद करता है। नदी, पर्वत, पहाड़, झरने, बादल, सूर्य, तारे, चाँद वनस्पति सभी का सौंदर्य व्यक्ति को न केवल नयनाभिराम बना देता है अपितु कोई न कोई सीख भी प्रदान करता है।

6. द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरा जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषा बनाए रखने की सीख दी है। क्या आप इससे सहमत हैं? क्या आप इससे सहमत हैं? पक्ष-विपक्ष में तर्क दें।

उत्तर-

पक्ष- प्रस्तुत अध्याय में लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषा बनाये रखने की सीख दी है। हम इस तर्क से सहमत हैं क्योंकि व्यक्ति समाज से पलायन नहीं कर सकता जैसी भी सामाजिक परिस्थितियों क्यों न हो उन्हींपरिस्थितियों में मनुष्य को साहस, हिम्मत एवम् उत्साहपूर्वक जीवनयापन करना पड़ता है। आज चारों ओर यद्यपि लूटपाट, छल-कपट, मारामारी का बोलबाला है। किन्तु मनुष्य को ऐसे में अपना संयम बनाए रखते हुए, बुराइयों से बचकर एवम् उनका सुधार कर जीने की इच्छा को बनाये रखना होगा। मनुष्य के लिए समाज से पलायन करना असम्भव है। उसे अपना है। उसे अपनी अच्छाइयों के प्रकाश द्वारा समाज की बुराईयों के अँधकार को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

विपक्ष- आज की आपाधापी के माहौल में व्यक्ति के लिए जीना मुश्किल हो गया है। बुराईयों का कोलाहल व्यक्ति के संघर्ष करने की शक्ति कोभी समाप्त कर देता है। संघर्षों के उपरान्त उपलब्धि की प्राप्ति न हो पर व्यक्ति हताश व परेशान हो जाता है। इसी कारण जीने की इच्छा समाप्त हो जाती है। लूटपाट, छीना-झपटी, हिंसा, मारामारी आदि को देखकर व्यक्ति परेशानियों से घिरा जिजीविषा शक्ति को खो बैठता है।

शिरीष के फूल भाषा की बात


दस दिन फूले और फिर खंखड़-खंखड़ इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँट कर लिखें।

उत्तर– ‘दस दिन फूले और फिर खंखंड-खंखड’ लोकोक्ति से मिलता जुलता वाक्य है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस तरह के वाक्यों काभरपूर प्रयोग किया है- जमे कि मरे, जो फरा सो झरा, न ऊधो का लेना न माधो का देना, कवि बनना है तो फक्कड़ बनो, वह अवधूत आज कहाँ हैआदि।

इन्हें भी जानें


अशोक वृक्ष के बारे में जानकारी 

 भारतीय साहित्य में बहुचर्चित एक सदाबहार वृक्ष। इसके पत्ते आम के पत्तों से मिलते हैं। वसंत ऋतु में इसके फूल लाल-लाल गुच्छोंके रूप में आते हैं। इस कामेदव के पाँच पुष्पवाणों में से एक माना गया हैं इसके फल सेम की तरह होते हैं। इसके सांस्कृतिक महत्त्व का अच्छा चित्रण हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने निबंध अशोक के फूल में किया है। भ्रमवश आज एक दूसरे वृक्ष को अशोक कहा जाता रहा है और मूल पेड़(जिसका वानस्पतिक नाम सराका इंडिका है।) को लोग भूल गए हैं। इसकी एक जाति श्वेत फूलों वाली भी होती है। अरिष्ठ वृक्ष- रीठा नाम वृक्ष। इसके पत्ते चमकीले हरे होते हैं। फल को सुखाकर पेड़ की डालियों व तने पर जगह-जगह काँटे उभरे होते हैं, जो बाल और कपड़े धोने के काम भी आता है।


आरग्वध वृक्ष- लोक में उसे अमलदास कहा जाता है। भीषण गरमी की दशा में जब इसका पेड़ पत्रहीन ठूंठ सा हो जाता है, पर इस पर पीले-पीले पुष्प गुच्छे लटके हुए मनोहर दृश्य उपस्थित करते हैं। इसके फल लगभग एक डेढ़ फुट के बेलनाकार होते हैं जिसमें कठोर बीज होते हैं।

शिरीष वृक्ष- लोक में शिरीष नाम से मशहूर पर एक मैदानी इलाके का वृक्ष है। आकार में विशाल होता है पर पत्ते बहुत छोटे-छोटे होते है। इसके फूलों में पंखुड़ियों की जगह रेशे – रेशे होते हैं।

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