नौबतखाने में इबादत का सार प्रश्न उत्तर

नौबतखाने में इबादत पाठ का सार

नौबतखाने में इबादत पाठ के लेखक यतीन्द्र मिश्र हैं। पाठ के आरंभ में लेखक ने सन् 1916 से 1922 के उस समय का वर्णन किया है जब उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ लगभग छः साल के थे। साथ ही काशी में पंचगंगा के किनारे स्थित बालाजी के मंदिर से आती शहनाई की मंगलधुनों का उल्लेख किया है। बिस्मिल्ला खाँ का बचपन का नाम अमीरूददीन था। उन्हें रागों के विषय में बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था। उनके मामा देश के प्रसिद्ध शहनाई वादक थे। प्रतिदिन बाला जी के मंदिर में बैठकर वे रागों का रियाज़ किया करते थे। अमीरुद्दीन का जन्म बिहार के डुमरांव नामक स्थान पर हुआ था। 5-6 वर्ष की अवस्था में ही वे अपने नाना के घर काशी में आ गए। डुमराँव का अपना एक विशेष महत्त्व है। यहाँ सोन नदी के किनारे एक घास विशेष पाई जाती है जिसके द्वारा शहनाई में फूँकने के लिए रीड बनाई जाती है। अमीरुद्दीन अर्थात् उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जन्म भी वहीं पर होने के कारण इसका महत्त्व और बढ़ गया है। बिस्मिल्ला खाँ के माता-पिता का नाम मिट्ठन बाई व पैगंबरबख्श खाँ है।

जब बिस्मिल्ला खाँ 14 साल के थे तब उन्हें काशी के पुराने बाला जी के मंदिर के नौबतखाने में रियाज के लिए जाना पड़ता तो वे उस रास्ते से जाते थे जहाँ दो गायिका बहनें रहती थी। उस रास्ते पर उन्हें अनेक तरह की संगीत और गायन की विधाएँ सुनने को मिलती थीं। उन गायिका बहनों का बिस्मिल्ला को संगीत की ओर अग्रसर करनें का श्रेय जाता है। शहनाई को फूक कर बजाए जाने वाले वाद्य यंत्रों में गिना जाता है। अरब देशों में ऐसे वाद्य-यंत्रं को ‘नय’ कहते हैं। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तानसेन की रचनाओं में शहनाई, मुरली आदि का उल्लेख पाया जाता है। अवधी में रचित लोकगीतों आदि में शहनाई का वर्णन मिलता है। मांगलिक कार्यक्रमों में इसे बजाया जाता है। दक्षिण भारत में प्रभाती आदि में शहनाई मंगल ध्वनि का सूचक है।

अपनी अस्सी बरस की अवस्था में भी बिस्मिल्ला खाँ दिन की प्रत्येक नमाज में सच्चा सुर पाने की प्रार्थना करते रहते थे। वे ऐसा सुर चाहते थे जिसमें ऐसा प्रभाव हो कि सभी भाव विभोर हो उठें। साथ ही उन्हें यह विश्वास भी था कि एक दिन ऐसा आएगा जब खुदा उसकी मुराद पूरी करेगा। प्रत्येक मनुष्य दुर्बलताओं और कठिनाइयों से बचने के लिए किसी शांत जगह पर जाना चाहता है। बिस्मिल्ला खाँ उम्र के अंतिम पड़ाव में भी यही सोचते रहे कि उनको सातां सुरों को अच्छी तरह बनाने का तरीका क्यां नहीं आया। मुहर्रम के महीने में दस दिनों का शोक मनाया जाता है। इन दिनों किसी प्रकार का कोई भी संगीत का कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता है। आठवं दिन बिस्मिल्ला खाँ शहनाई बजाते हुए. रोते हुए. मातमी धुन बजाते हुए दालमंडी से लगभग आठ किलोमीटर दूर पैदल जाते थे। वे इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की शहादत पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इस प्रकार एक महान कलाकार का सहज मानवीय रूप हमारे सामने प्रकट होता है।

बिस्मिल्ला खाँ को अपनी जवानी के वे दिन याद आते हैं जब उन्हें रियाज करने का जुनून चढ़ा रहता था। साथ ही उन्हें कचौड़ियों की दुकान भी याद रहती थी। वे गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते थे। उनकी पसंदीदा हीरोइन सुलोचना हुआ करती थी। वे बच्चों की तरह मुस्कराते थे। उनके बचपन की वह घटना भी बताई गई है जब वे अपने नाना की शहनाई को ढूंढ़ने के लिए अनेक शहनाइयों को इधर-उधर फेंक देते थे। जब उनका मामा शहनाई बजाते तो पत्थर को जमीन पर पटक कर उनकी प्रशंसा करते थे। वे फ़िल्मों के बहुत शौकीन थे और घर के सदस्यों से पैसे इकट्ठे करके फिल्म देखने जाते थे। सुलोचना की फ़िल्म तो वे अवश्य देखते थे। कुलसुम हलवाइन की देशी घी की कचौड़ी भी उनसे कभी न छूटी।

काशी के दक्षिण में स्थित बाला जी का मंदिर संगीत आयोजन की एक प्राचीन और अद्भुत परम्परा लिए हुए है। हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिन तक शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन-वादन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। बिस्मिल्ला खाँ भी इसमें शामिल होते थे। उनकी विश्वनाथ और बालाजी में पूर्ण श्रद्धा थी। काशी से बाहर भी कहीं शहनाई बजाते थे तो विश्वनाथ और बालाजी के मंदिर की दिशा में ही अपना मुँह करके बैठते थे। मुसलमान होते हुए भी उनकी गंगा, काशी, विश्वनाथ, बालाजी में श्रद्धा थी। वे मरते दम तक शहनाई और काशी के न छुटने की बात भी कहते थे। वे काशी को ही स्वर्ग मानते थे। काशी को संस्कृति की पाठशाला कहा गया है और विद्वानों और महापंडितों की नगरी बताया गया है । सभी प्रकार की रस्मों-रिवाजों में साम्य है, संगीत भक्ति में विद्यमान है। सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बिस्मिल्ला खाँ भी काशी से जुड़े हुए हैं।

किसी उत्सव या समारोह में जब बिस्मिल्ला खाँ शहनाई बजाते तो लोग तुरंत पहचान लेते थे। उनकी शहनाई की जादुई सरगम सबको मंत्र-मुग्ध कर देती थी लोग उनकी प्रशंसा करते नहीं धकते थे। शहनाई साजों की कतार में प्रमुख स्थान प्राप्त कर गई थी। ऐसा लगता है कि एक फकीर की दुआ उन्हें लग गई थी। एक बार उनकी एक शिष्या ने उनकी पहनावे के प्रति उदासीनता को देखते हुए कहा कि आपको ‘भारतरत्न’मिल चुका है फिर भी आप लोगों से इस फटे तहमद में ही मिलने चले जाते हैं। तब बिस्मिल्ला खाँ ने कहा कि भारतरत्न तो शहनाई को मिला है। बनाव-सिंगार में लगे रहते तो वे रसिया न कर पाते। वे भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि लुगिया की तरह उनका सुर कभी न फटे। 

सन् 2000 में पक्का महाल से मलाई बरफ बेचने वाले जा चुके हैं, उनकी कमी बिस्मिल्ला खाँ को अखरती है। उन्हें यह भी आभास होता है कि अब गायकों को अपने संगतकारों की कोई परवाह नहीं है, न ही उनके प्रति आदर-भाव रहा है। उन्हें इस बात का भी दु:ख होता है कि आज घंटों किए जाने वाले रियाज को भी कोई नहीं पूछता।

आज यह देखकर हैरानी होती है कि काशी में संगीत, साहित्य, आदर आदि की सभी परंपराएँ समाप्त हो गई हैं। बिस्मिल्ला खाँ को इनकी कमी बहुत अनुभव हुई। लेकिन धीरे-धीरे सारी बातें इतिहास बनती जा रही हैं। फिर भी काशी में कुछ बचा हुआ है, वहाँ पर आज भी संगीत व्याप्त है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि दो संप्रदायों को एक बनाने वाले और भाईचारे की प्रेरणा देने वाले बिस्मिल्ला खाँ भी काशी में ही रहे हैं। उन्हें भले ही भारतरत्न, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म विभूषण जैसे अनेक सम्मानों और अनेक मानद उपाधियों से अलंकृत किया गया हो, किंतु उन्हें अपनी अजेय संगीत यात्रा के लिए हमेशा याद किया जाएगा और वे संगीत के नायक बने रहेंगे। 21 अगस्त, 2006 को वह महान विभूति सदा के लिए विदा हो गई।

नौबतखाने में इबादत पाठ का प्रश्न उत्तर 

1. शहनाई की दुनिया में डुमराँव को क्यों याद किया जाता है? 

उत्तर– शहनाई और डुमरांव में घनिष्ठ संबंध है। डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाने वाली नरकट घास से रीड बनाई जाती है। यह रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। फिर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जन्म भी डुमराँव में ही हुआ था।

2 बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक क्यों कहा गया है?

उत्तर– बिस्मिल्ला खाँ अपनी अस्सी वर्ष की अवस्था में भी सच्चे सुर के लिए खुदा से प्रार्थना करते रहे। अपनी प्रत्येक नमाज में इसी सुर को पाने की प्रार्थना करते। उनकी यही इच्छा रहती थी कि लोगों के मांगलिक कार्यों में उनकी शहनाई बजती रहे। इसीलिए बिस्मिल्ला खाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक कहा गया है।

3. सुषिर-वाद्यों से क्या अभिप्राय है? शहनाई को ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि क्यों दी गई होगी?

उत्तर– फूक कर बजाय जाने वाले वाद्य यंत्रों को ‘सुषिर-वाद्य’ कहा जाता है। वैदिक इतिहास में शहनाई का उल्लेख नहीं मिलता। अरब देश में फूँककर बजाए जाने वाले वाद्य जिसमें ‘नाड़ी’ होती है, उसे ‘नय’ कहते हैं। इसी आधार पर शहनाई को शाहे अर्थात् ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि दी गई है।

4. आशय स्पष्ट कीजिए
(क) फटा सुर न बख्शें। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।’
(ख) मेरे मालिक सुर बख्श दें। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह अनगढ़ आँसू निकल आएँ।

उत्तर क– प्रस्तुत पंक्तियों से आशय यह है कि बिस्मिल्ला खाँ भगवान से प्रार्थना करते थे कि उनकी लुंगी भले ही फट जाए किंतु शहनाई का स्वर कभी न फटे, वह हमेशा पूर्ण और सच्चा बना रहे। लुंगी का क्या है फट जाने पर फिर सिल जाएगी लेकिन सुर फटने के बाद उसमें सुधार नहीं हो सकेगा।
उत्तर ख– कहने का आशय है कि बिस्मिल्ला खाँ जब भी नमाज पढ़ते थे तो खुदा से सच्चे सुर की प्रार्थना करते थे। वे अपने सुर में ऐसा प्रभाव पाना चाहते थे कि उसके प्रभाव से भाव-विभोर होकर प्रत्येक आँख सं सच्चे मोतियों के समान चमकते हुए आँसू बहने लगे।

5. काशी में हो रहे कौन-से परिवर्तन बिस्मिल्ला खाँ को व्यथित करते थे?

उत्तर– काशी जो संगीत, साहित्य और आदर की परंपराओं के लिए प्रसिद्ध थी अब वहाँ की परंपराओं में परिवर्तन आ गया था। गायकों के मन में संगतकारों के प्रति आदर नहीं रहा, घंटों किए जाने वाले रियाज़ को कोई नहीं पूछता था। संगीत, साहित्य, आदर की अधिकतर परंपराएँ समाप्त हो गई थी। इन सबको देखकर बिस्मिल्ला खाँ व्यथित हो उठे थे।

6. पाठ में आए किन प्रसंगों के आधार पर आप कह सकते हैं कि
(क) बिस्मिल्ला खाँ मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
(ख) वे वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इनसान थे।

उत्तर क– अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार थी।- इस प्रसंग के आधार पर कह सकते हैं कि बिस्मिल्ला खाँ मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे।
उत्तर ख– ‘धत्! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं। तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते रहते, तो उमर ही बीत जाती, हो चुकती शहनाई।” तब क्या खाक रियाज़ हो पाता। ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है, “फटा सुर न बख्शें। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।” -इस प्रसंग के आधार पर कह सकते हैं कि वे वास्तविक अर्थों में एक सच्चे इंसान थे।

7. बिस्मिल्ला खाँ के जीवन से जुड़ी उन घटनाओं और व्यक्तियों का उल्लेख करें जिन्होंने उनकी संगीत साधना को समृद्ध किया?

उत्तर– बिस्मिल्ला खाँ का जन्म संगीतमय वातावरण में हुआ था। बाद में उनका बचपन भी शहनाइयों की गुँज में व्यतीत हुआ। रसूलन बाई और बतूलनबाई नामक दो गायिका बहनों का बिस्मिल्ला खाँ को संगीत की और प्रेरित किया। बिस्मिल्ला खाँ जब काशी के पुराने बालाजी के मंदिर नौबतखाने में रियाज के लिए जाते तो उन दोनों गायिका बहनों द्वारा गाय गए ठुमरी, टप्पे, दादरा आदि सुनते थे। अनेक समारोह, उत्सव आदि में भी वे अपनी शहनाई की मंगलध्वनि निकालते थे। मुहर्रम में वे अपनी शहनाई से नौहा बजाते पैदल जाते थे। वे घंटों रियाज़ करते थे संगीत और सच्चे सुर की चाह में लगे रहते थे। इस तरह की अनेक घटनाओं और व्यक्तियों ने उनकी संगीत साधना को समृद्ध किया।

नौबतखाने में इबादत रचना और अभिव्यक्ति

8. बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की कौन-कौन सी विशेषताओं ने आपको प्रभावित किया? 

उत्तर– बिस्मिल्ला खाँ के व्यक्तित्व की ऐसी अनेक विशेषताएँ हैं जिन्होंने हमें प्रभावित किया। सर्वप्रथम तो हमें उनके अपने लक्ष्य, अपने उद्देश्य के प्रति समर्पण की भावना ने प्रभावित किया। उन्होंने अन्य कर्तों को गौण रखकर संगीत को ही अपना लक्ष्य बनाकर प्राथमिकता दी। शहनाई वादक के रूप में विख्यात होने और भारताल जैसे पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद भी किसी प्रकार का कोई दिखावा आदि न करके सादे कपड़ों में रहना. उनकी सहजता को प्रदर्शित करता है। हिन्दू मुस्लिम संप्रदाय में सामंजस्य स्थापित करने की भावना भी उनमें प्रव्न थी। उन्होंने सदैव भाईचारे की भावना पर बल दिया।

9. मुहर्रम से बिस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर– ‘मुहर्रम’ बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ जुड़ा हुआ एक मुस्लिम पर्व है। मुहर्रम के महीने में शिया मुसलमान हजरत इमाम हुसैन एवं उनके वंशजों के प्रति शोक मनात हैं। पूरे दस दिन चलने वाले इस शोक में किसी प्रकार का कोई संगीत नहीं बजाया जाता है। आठवें दिन बिस्मिल्ला खाँ खड़े होकर शहनाई बजात थे तथा दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी पैदल रोते हुए, शोक धुन बजाते हुए जाते थे । वे इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की कुर्बानी में रोते रहते। मुहर्रम के इस गमगीन माहौल से विस्मिल्ला खाँ का विशेष जुड़ाव था!

10. बिस्मिल्ला खाँ कला के अनन्य उपासक थे, तर्क सहित उत्तर दीजिए।

उत्तर– बिस्मिल्ला खाँ कला के अनन्य उपासक थे अस्सी वर्ष की आयु में भी वे सच्चे सुर के लिए खुदा से प्रार्थना करते रहे। वे शहनाई बजाने का घंटों रियाज़ करते रहते थे। उन्हें कुलसुम नामक हलवाईन को कचौड़ियाँ संगीतमय लगतो थी। जब कचौड़ी घी में डाली जाती थी, उस समय छन्न से उठने वाली आवाज में भी उन्हें सारे आरोह अवरोह दिख जाते थे।

नौबतखाने में इबादत भाषा-अध्ययन

11. निम्नलिखित मिश्र वाक्यों के उपवाक्य छाँटकर भेद भी लिखिए

(क) यह ज़रूर है कि शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं।
(ख) रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। 
(ग) रीड नरकट से बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है।
(घ) उनको यकीन है, कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा।
(ङ) हिरन अपनी ही महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है जिसकी गमक उसी में समाई है।
(च) खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा को अपने भीतर जिंदा रखा।
उत्तर – 
क- कि शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। – संज्ञा उपवाक्य
ख- जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है।- विशेषण उपवाक्य 
ग- जो डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारों पर पाई जाती है। – विशेषण उपवाक्य 
घ- कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा।- संज्ञा उपवाक्य 
ङ- जिसकी गमक उसी में समाई है।- विशेषण उपवाक्य 
च- कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा को अपने भीतर जिंदा रखा।- संज्ञा उपवाक्य 

12. निम्नलिखित वाक्यों को मिश्रित वाक्यों में बदलिए-

(क) इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं। 
(ख) काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत परंपरा है। 
(ग) धत्! पगली ई भारतरत्न हमको शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं। 
(घ) काशी का नायाब हीरा हमेशा से दो कौरवों को एक होकर आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा।
उत्तर
क- यही वह बालसुलभ हँसी है जिसमें कई यादें बंद हैं।
ख- काशी वह स्थान है जहाँ संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत परंपरा है। 
ग- धत्! पगली ई भारतरत्न हमको लुंगिया पे नाहीं, बल्कि शहनईया पे मिला है।
घ- यह काशी का वह नायाब हीरा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होकर आपस में भाईचारे के साथ रहने की प्रेरणा देता रहा।

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