चंद्रगहना से लौटती बेर कविता का सारांश, भावार्थ, व्याख्या, प्रश्न उत्तर क्लास 9
चंद्रगहना से लौटती बेर का सार या सारांश
‘चंद्रगाहना से लौटती बेर‘ कविता के कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं | इस कविता में प्रकृति का मानवीकरण किया गया है | प्रस्तुत कविता में कवि का प्रकृति के प्रति गहन अनुराग व्यक्त हुआ है। वह चंद्र गहना नामक स्थान से लौट रहा है। लौटते हुए उसके किसान मन को खेत-खलिहान एवं उनका प्राकृतिक परिवेश सहज आकर्षित कर लेता है। इस कविता में कवि की उस सृजनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति है जो साधारण चीज़ों में भी असाधारण सौंदर्य देखती है और उस सौंदर्य को शहरी विकास की तीव्र गति के बीच भी अपनी संवेदना में सुरक्षित रखना चाहती है। यहाँ प्रकृति और संस्कृति की एकता व्यक्त हुई है।
चंद्रगहना से लौटती बेर का सप्रसंग व्याख्या व भावार्थ
देख आया चंद्र गहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
पास ही मिल कर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, जो छुए यह
दूॅ हृदय का दान उसको।
और सरसों की न पूछो
हो गई सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह-मंडप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं : स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
चंद्रगहना से लौटती बेर का प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ की ‘केदारनाथ अग्रवाल’ द्वारा रचित कविता ‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ से उद्धृत हैं। कवि चंद्रगहना नामक गाँव से लौटते हुए खेतों में लगी फसल के सौंदर्य का वर्णन करता हुआ कहता है कि-
चंद्रगहना से लौटती बेर व्याख्या-मैं चन्द्रगहना गाँव देखकर आ रहा हूँ। खेतों की मेड़ पर बैठा हुआ, चने को देखकर कवि कहता है कि एक बीते का यह छोटा चने का पौधा जिसमें गुलाबी फूल आ गए हैं फूलों की पगड़ी सिर पर बाँधे जैसे सजकर खड़ा है। अलसी को स्वभाव की हठीली, कमर की पतली और देह की लचीली बताते हुए कवि कहता है, कि वह भी चने के पास ही अपने नीले फूलों को लिए खड़ी है। कवि कहता है कि ऐसी सुंदरता वाली अलसी मानों जैसे कह रही हो कि जो ही मुझे छुएगा उसी को अपना हृदय दान कर दूँगी। उसी की प्रेमिका हो जाऊँगी।
सरसों के पीले फूलों की शोभा से मुग्ध हुआ कवि कहता है कि सरसों तो जैसे सयानी हो गई है उसने अपने हाथ पीले कर लिए हैं। वह जब ब्याह के मंडप में इस रूप में आई है तो फागुन का यह वासंती मौसम इस स्वयंवर को देखकर फाग (होली के गीत) गाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहा है। यह सब देखकर कवि कहता है कि लगता है कि फागुनी हवा में जैसे प्रकृति का प्रेम भरा आँचल मंद-मंद हिल रहा है।
इस विजन में,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ।
एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
चुप खड़ा बगुला डुबाए टांग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान-निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भारी जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
चंद्रगहना से लौटती बेर का प्रसंग- इन पंक्तियों में कवि नगरीय जीवन की नीरसता के प्रति उपेक्षा का भाव तथा ग्रामीण जीवन की सरसता के चित्र खींचता हुआ प्रकृति का वर्णन कर रहा है। कवि कहता है कि
चंद्रगहना से लौटती बेर का भावार्थ- इस सुनसान में भी नगरीय जीवन की व्यापारिक चकाचौंध से अलग हटकर प्रेम पूर्ण वातावरण है। कवि आगे प्रकृति का वर्णन करता हुआ कहता है कि पास ही में एक पोखर में लहरें उठ रही हैं, लहराते हुए जल की सतह के किनारे नीले हुए जल-तल में उगी भूरी घास भी जल के साथ लहरा रही है। पानी में पड़ता सूर्य का हिलता प्रतिबिंब चाँदी के गोल किन्तु बड़े खंभे के समान हो गया है और वह आँखों में चमक कर उन्हें चकमका दे रहा है। किनारे के पत्थर चुपचाप जैसे पानी पी रहे हैं, उन्हें देखकर कवि कल्पना करता है कि उनकी यह लंबी प्यास कब तक बुझ सकेगी।
जल में एक टाँग पर खड़े बगुले को देखकर कवि कहता है कि जैसे यह योगी की भाँति ध्यान-साधना कर रहा है जो अपनी आहार चंचल मछलियों को जब-जब देखता है तब-तब उसकी समाधि टूट जाती है। और वह बगुला भगत जल्दी से चोंच से मछलियों को दबाकर अपने गले के नीचे उतार लेता कवि कहता है कि ठीक बगुले की ही तरह काले सिर और सफेद पंखों वाली चिड़िया उजली मछली को अपने पंखों से झपट्टा मारकर अपनी पीली चोंच में दबा. दूर आकाश में उड़ जाती है।
औ’ यहीं से
भूमि ऊँची है जहाँ से
रेल की पटरी गई है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छंद हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रीवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं।
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें;
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता.
सारस का स्वर
टिरटों टिरटों;
चंद्रगहना से लौटती बेर का प्रसंग- इन पंक्तियों में कवि ने चित्रकूट और बुंदेल खंड की धरती और वहाँ दूर तक फैली पहाड़ियों का वर्णन किया है, वह कहता कि
चंद्रगहना से लौटती बेर का भावार्थ व व्याख्या- खेतों के बाद की जमीन ऊँची है और वहाँ से रेल की पटरी गई हुई है। कवि कहता है कि मुझे कोई चिंता नहीं है। ट्रेन का टाइम नहीं है, ऐसा कहकर कवि नगरीय जीवन की भाग-दौड़ और अस्त व्यस्त जीवन की ओर संकेत करना चाहता है। ग्रामीण परिवेश का वर्णन करते हुए वह कहता है कि इस तरफ चित्रकूट को कम ऊँची अनगढ़ चौड़ी पहाड़ियाँ दूर-दूर तक फैली हुई हैं।
जमीन पथरीली और बाँझ है, फिर भी कहीं-कहीं रीवा के काँटेदार पौधे फैले हुए हैं। इस उचाट में भी तोते ( सुग्गे) की टें-टें का स्वर सरिता घोल रहा है और तोतों (सुग्गों) के साथ-साथ सारसों का टिरटों-टिरटों का स्वर जैसे मानो वन स्थली की शांति या नीरवता को भंग कर रहा है। यह स्वर अत्यंत करुण है इसलिए कवि कहता है कि यह स्वर वनस्थली के हृदय को चीर रहा है।
मन होता है उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में,
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।
चंद्रगहना से लौटती बेर प्रसंग- प्रकृति की इस छटा को निहार कर कवि इन पंक्तियों में अपने हृदय में उपजी भावनाओं को व्यक्त करता हुआ कहता है कि-
चंद्रगहना से लौटती बेर भावार्थ- मेरा मन होता है कि मैं भी सारस के साथ पंख बाँधकर उन हरे खेतों में उड़ जाऊँ, जहाँ सारस और सारसी (सारस का जोड़ा) रहते हैं; और उनकी सच्ची प्रेम कहानी अपने कानों से सुन लूं। कहने का आशय यह है कि कवि को नगरीय जीवन की व्यापारिक, चकाचौंध और ऊब भरी संस्कृति से घृणा तथा ग्रामीण प्रकृति परिवेश से सहज ही लगाव उत्पन्न हो गया तथा इसी सौंदर्य और प्रेमयुक्त वातावरण के सम्मोहन में बंधा हुआ वह कहता है कि प्रेम मानव जीवन से हटकर प्रकृति और प्राकृतिक सहारों पर जीने वाले जीवों में केंद्रित हो गया है।
चंद्रगाहना से लौटती बेर का प्रश्न उत्तर
1. ‘इस विजन में …… अधिक है’-पंक्तियों में नगरीय संस्कृति के प्रति कवि का क्या आक्रोश है और क्यों?
उत्तर– इन पंक्तियों में कवि का आक्रोश नगरीय जीवन और संस्कृति के प्रति यह है कि वहाँ प्रेम और सौंदर्य, सरलता और मानवता जैसी चीजें मर गई हैं इसका कारण यह है कि आगे बढ़ने की होड़ ने मनुष्य को शहरी जीवन में अपने तक सीमित अर्थात् आत्म केंद्रित कर दिया है, वह वास्तविक, सुख, शांति, प्रेम और प्रकृति को भूलकर केवल जीवन की निरूद्देश्य आपा-धापी में उलझ गया है।
2. सरसों को ‘सयानी’ कहकर कवि क्या कहना चाहता होगा?
उत्तर– सयानी होने से तात्पर्य यह है कि सरसों के पौधे बड़े हो गये हैं और अब उनमें फूलों और फलियों का विकास होने लगा है। दूसरी ओर कवि इस परंपरा की ओर भी इशारा करता है कि सयानी होने पर लड़कियों के विवाह कार्य संपन्न होते हैं। इसीलिए आगे चलकर वह सरसों के स्वयंवर की भी बात कहता है।
3. अलसी के मनोभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर– कवि अलसी का चंचल चित्र खींचते हुए कहता है कि वह कह रही है कि जो भी मुझे छुएगा. मैं उसी को अपना हृदय दान कर दूंगी।
4. अलसी के लिए ‘हठीली’ विशेषण का प्रयोग. क्यों किया गया है?
उत्तर– अलसी के पौधों को देखकर कवि उसे हठीली इसलिए कहता है कि अलसी चने के पास उससे सट कर उगी है; और दोनों के विकास में प्रतिस्पर्धा का भाव है। वह चने के बीच-बीच में उगने का हठ कर रही है।
5. ‘चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा’ में कवि की किस सूक्ष्म कल्पना का आभास मिलता है?
उत्तर– सूर्य के जल में हिलते प्रतिबिंब की छाया लहरा-लहरा कर कवि को चाँदी के बड़े गोल खंभे का आभास देती है।
6. कविता के आधार पर ‘हरे चने’ का सौंदर्य अपने शब्दों में चित्रित कीजिए।
उत्तर– हरा चना, एक बीते का है, ठिंगना है, सिर पर गुलाबी फूल का पगड़ी (मुरेठा) बाँधकर पूरी तरह से सजकर खड़ा है।
7. कवि ने प्रकृति का मानवीकरण कहाँ-कहाँ किया है ?
उत्तर– कवि ने चने, सरसों, अलसी, फागुन के मौसम, बगुले, तथा तालाब के जल और वनस्थली तथा सारस के वर्णन में प्रकृति का मानवीकरण किया है।
8. कविता में से उन पंक्तियों को ढूँढ़िए जिनमें निम्नलिखित भाव व्यंजित हो रहा है– और चारों तरफ़ सूखी और उजाड़ जमीन है लेकिन वहाँ भी तोते का मधुर स्वर मन को स्पंदित कर रहा है।
उत्तर-
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रीवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं।
सुग्गे का स्वर
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
टें टें टें टें
चंद्रगहना से लौटती बेर रचना और अभिव्यक्ति
9. और सरसों की न पूछो’- इस उक्ति में बात को कहने का एक खास अंदाज़ है। हम इस प्रकार की शैली का प्रयोग कब और क्यों करते हैं?
उत्तर– कवि के शब्द-चयन और वाक्य-संरचना में नाटकीयता का समावेश हुआ है जिससे उसके हृदय में छिपे भाव एक खास अंदाज में प्रकट हुए हैं। जब वह युवा हो चुकी सरसों के लिए कहता है-‘और सरसों की न पूछो’ तो उससे यह स्पष्ट रूप से ध्वनित होता है कि अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया कि सरसों बड़ी हो गई है और विवाह के योग्य हो चुकी है। हम सामान्य बोलचाल में इस प्रकार की शैली का प्रयोग तभी और वहीं करते हैं जब हम किसी बात पर पूरी तरह विश्वस्त हो जाते हैं। उस बात की सच्चाई पर हमें तनिक भी अविश्वास या संशय नहीं होता।
10. काले माथे और सफ़ेद पंखों वाली चिड़िया आपकी दृष्टि में किस प्रकार के व्यक्तित्व का प्रतीक हो सकती है?
उत्तर– कविता में वर्णित काले माथे और सफ़ेद पंखों वाली चिड़िया चालाक, मौकापरस्त और चुस्त व्यक्तित्व का प्रतीक हो सकती है जो उचित अवसर मिलते ही अपना स्वार्थ पूरा कर दूर भाग जाता है।
चंद्रगाहना से लौटती बेर भाषा अध्ययन
11. बीते के बराबर, ठिगना, मुरैठा आदि सामान्य बोलचाल के शब्द हैं, लेकिन कविता में इन्हीं से सौंदर्य उभरा है और कविता सहज बन पड़ी है। कविता में आए ऐसे ही अन्य शब्दों की सूची बनाइए।
उत्तर– हठीली, लचीली, सयानी, फाग, फागुन, पोखर, लहरियाँ, झपाटे, उजली, चटुल, रेल की पटरी, ट्रेन का टाइम, सुग्गे, टें टें टें,
12 कविता को पढ़ते समय कुछ मुहावरे मानस-पटल पर उभर आते हैं, उन्हें लिखिए और अपने वाक्यों में प्रयुक्त कीजिए।
उत्तर-
1. बीते के बराबर – छोटा।
वाक्य-अरे, इस राकेश को तो देखो! यह है तो बीते के बराबर, पर बातें कितनी बड़ी-बड़ी करता है।
2. हाथ पीले करना – विवाह करना।
वाक्य-हर माता-पिता को अपनी जवान बेटी के हाथ पीले करने की चिंता अवश्य होती है।
3. प्यास बुझना – संतोष होना, इच्छा पूरी होना।
वाक्य-शिष्य ने जैसे ही अपने गुरु जी को देखा उसकी आँखों की प्यास बुझ गई।
4.टूट पड़ना – हमला करना।
वाक्य-हमारे खिलाड़ी तो विपक्षी टीम के गोल पर टूट पड़े और एक के बाद एक लगातार चार गोल ठोक दिए।
5. जुगुल जोड़ी = प्रेम करने वाली जोड़ी
वाक्य-भक्त के हृदय में राधा-कृष्ण की जुगुल जोड़ी सदा बसी ही रहती है।
chandra gehna se lotati ber question answer