वन पथ पर व्याख्या van path par vyakhya class 10 up board

वन पथ पर व्याख्या van path par vyakhya class 10 up board को पढ़ेंगे। इसमें भावार्थ के भाव भी सम्मिलित रहेंगे। परीक्षा की दृष्टि से यह अति महत्त्वपूर्ण है। वन पथ पर की sprasang and sandarbh sahit vykhya का अध्ययन करेंगे।

वन पथ पर की व्याख्या क्लास 10 

संदर्भ– प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी के ‘वन पथ पर’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके कवि ‘गोस्वामी तुलसीदास’ हैं। उक्त पाठ तुलसीदास  की रचना ‘कवितावली’ के अयोध्याकाण्ड से लिया गया है।

पद्य संख्या-1

पुर तें निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दये मग में डग है।

झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर वै।।

फिर बूझति हैं- ‘चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहों कित है?’

तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।1

प्रसंग– उपर्युक्त पद्य में तुलसीदास सीता की सुकुमारता का चित्रण किया है साथ ही साथ सीता के प्रति राम के कारुणिक भाव को प्रकट किया है।

व्याख्या– श्रीराम की पत्नी सीता नगर से निकलती हैं। धैर्य धारण करके मार्ग में जैसे ही कुछ कदम रखती हैं, मस्तक पर पसीने की बूँदें झलकने लगती है। ओठ के दोनों मधुर पटल सूख जाते हैं। फिर वह श्रीराम से पूछती हैं कि अभी कितना दूर चलना है और अपने पत्ते की कुटियाँ कहाँ बनायेंगे। प्रिया की आतुरता को देखकर श्रीराम की दोनों चंचल आँखों से अश्रु रूपी जल प्रवाहित हो गया।

शब्दार्थ– पुर- नगर, निकसी- निकली, धरि- धारण करना, धीर- धैर्य, मग- मार्ग, डग- कदम, भाल- मस्तक, कनी- कण, मधुराधर- मधुर ओठ, बूझति- पूछना, केतिक- कितना, पर्णकुटी- पत्ते की कुटिया, तिय- पत्नी, लखि- देखकर, आतुरता- व्याकुलता, 

पद्य संख्या-2

“जल को गये लक्खन हैं लरिका, परिखौ, पिय! छाँह घरीक हवै ठाढ़े।

पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायें पखारिहों भूभुरि डाढ़े।।”

तुलसी रघुवीर प्रिया स्त्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।

जानकी नाह को नेह लख्यौ, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े।।2।।

प्रसंग– वन मार्ग में चलने के कारण सभी थक गए हैं। लक्ष्मण जल लेने के लिए गये हैं। राम और सीता एक-दूसरे के कष्ट को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं

व्याख्या– सीताजी श्रीराम से कहती हैं कि लक्ष्मण बाबू जल लेने गये हैं, क्षणभर छाए में खड़े होकर प्रतीक्षा कर लीजिए। आपके पसीने को पोंछकर हवा कर दूँ और गर्म रेत में चलने के कारण तप्त हुए पैर को पखार (धूल) दूँ। तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम प्रिया के श्रम को जानकर बैठकर काफी देर तक  सीता के पैरों में चुभे हुए काँटों को निकालते हैं। सीताजी नाथ के प्रेम को देखकर पुलकित शरीर वाली हो जाती हैं और उनके नेत्रों में जल की धारा बढ़ने लगती है।

शब्दार्थ– लक्खन- लक्ष्मण, परिखौ- प्रतीक्षा करना, घरीक- एक क्षण, पसेउ- पसीना, बयारि- हवा, अरु- और, पायें- पैर, भूभुरि- गर्म रेत, कंटक- काँटा, काढ़े- निकालना, नाह- नाथ, लख्यौ- देखकर, पुलको तनु- पुलकित शरीर, बारि- जल, बिलोचन- नेत्र। 

पद्य संख्या-3

रानी मैं जानी अजानी महा, पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है।

राजहु काज अकाज न जान्यो, कहह्यो तिय को जिन कान कियो है।।

ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है?

आँखिन में, सखि ! राखिबे जोग, इन्हें किमि के बनबास दियो है?

प्रसंग– उक्त पद्य में ग्राम वधूएँ कैकेयी को अज्ञानी बताते हुए राम, लक्ष्मण और सीता का बहुत ही मनोहारी चित्रण किया है।

व्याख्या– जब मार्ग से ये लोग गुजरते हैं तो गाँव की स्त्रियाँ आपस में बातें करते हुए कहती हैं कि मैं उस रानी (कैकेयी) को महा अज्ञानी समझती हूँ उसका हृदय वज्र और पत्थर से भी कठोर है। राजा (दशरथ) भी कुछ लाभ-हानि पर विचार नहीं किए, पत्नी ने जैसा कहा उन्होंने वैसा कर दिया। ये लोग (राम, लक्ष्मण और सीता) इतनी मनोहारी छवि वाले हैं कि इनको प्रेम करने वाले लोग इनसे बिछड़कर कैसे जी रहे होंगे। आगे वे कहती हैं कि हे सखी ये आँखों में रखे जाने योग्य हैं इन्हें किस कारण से वनवास दे दिया गया।

शब्दार्थ– अजानी- अज्ञानी, पबि- वज्र, पाहन- पत्थर, हियो- हृदय, मनोहर- मन को हरने वाला, बिछुरे- बिछड़कर, प्रीतम- चाहने वाले, राखिबे जोग- रखे जाने योग्य

पद्य संख्या-4

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहें।

तून सरासन बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं।

सादर बारहिं बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं।

पूछति ग्राम बधू सिय सों ‘कहौ साँवरे से, सखि रावरे को है?’

प्रसंग– उक्त पद्य में ग्राम वधूएँ सीताजी से हास-परिहास करती हैं और दर्शन लाभ का आनंद उठाते हुए कहती हैं कि-

व्याख्या- गाँव की औरतें सीता से पूछ रही हैं कि जिनके सिर पर जटा-जूट, जिनकी हृदय और भुजाएँ विशाल, नेत्र लाल, भौहें तिरछी, तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, वन के मार्ग में भलीभाँति सुशोभित हो रहे हैं। बार-बार आदरपूर्ण दृष्टि से तुम्हारी तरफ देखते हुए मुझे अपनी तरफ मोहित कर रहे हैं। श्याम वर्ण के हैं तुम्हारे क्या है?

शब्दार्थ– सीस- सिर, उर- हृदय, बाहु- भुजा, तून- तरकस, सरासन- धनुषबाण, मारग- मार्ग, सुठि- भलीभाँति, सोहैं- सुशोभित होना, सादर- आदरपूर्वक, चितै- हृदय, मोहैं- मोहित करना, रावरे- आपके।

पद्य संख्या-5

सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।

तिरछे करि नैन दें सैन तिन्है समुझाइ कछू मुसकाइ चली।।

तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचन-लाहु अली।

अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंज-कली

प्रसंग– उक्त पद्य में सीता की समझदारी और ग्राम वधुओं की चालाकी का चित्रण किया गया है। श्रीराम के सौंदर्य का दर्शन लाभ ग्राम वधूएँ ले लेती हैं।

व्याख्या- अमृत रस से सिक्त सुंदर वाणी को सुनकर, सीताजी समझदारी से भलीभाँति जान जाती हैं। नेत्र को तिरछा करके संकेत से ही उन्हें समझा देती हैं कि ये हमारे कौन हैं और मुस्कुराकर आगे बढ़ जाती हैं। तुलसीदास कहते हैं कि गाँव की स्त्रियाँ एक टक सुंदर दृश्य को देख रही हैं। इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मानो प्रेमरूपी तालाब में सुंदर कमल की कली खिल गयी हो।

शब्दार्थ- सुनि- सुनकर, बैन- वाणी, सुधारस- अमृतरस, सयानी- समझदारी, नैन- नेत्र, सैन- संकेत, तिन्है- उन्हें, अनुराग-तड़ाग- प्रेमरूपी तालाब, बिगसीं- विकसित होना, मंजुल- सुंदर, कंज-कली- कमल की कली

वन पथ पर पाठ का काव्य सौंदर्य-

  • भाषा- ब्रजभाषा
  • गुण- माधुर्य, प्रसाद
  • छंद- सवैया
  • रस- शृंगार

Leave a Comment