रसखान के सवैये की व्याख्या व भावार्थ / sawaiye ki vykhya class 10 up board
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन। जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।। पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर-धारन। जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन 1।। |
प्रसंग– प्रस्तुत सवैये में रसखान अगले जन्म में श्रीकृष्ण का सान्निध्य पाना चाहते हैं। वे कृष्ण की निकटता प्राप्त करने की तीव्र कामना व्यक्त करते हैं।
सवैये की व्याख्या– रसखान कह रहे हैं कि यदि मेरा अगला जन्म मनुष्य के रूप में होता है तो मैं ब्रज के गोकुल गांव के बीच में रहना पसंद करूँगा। यदि मेरा अगला जन्म पशु के रूप में होता है तो इसमें मेरा बस क्या ? फिर भी नित्य प्रति नंद के गायों के बीच रहना पसंद करूँगा। यदि मेरा अगला जन्म पत्थर के रूप में होता है तो मैं उस गोवर्धन पर्वत का हिस्सा बनना चाहूँगा जिसे भगवान कृष्ण इंद्र से लोगों की रक्षा के लिए अपनी उँगली पर उठाये थे। यदि मेरा अगला जन्म पक्षी के रूप में होता है तो मैं यमुना के किनारे कदंब वृक्ष की डालों पर रहना पसंद करूँगा।
काव्य सौंदर्य-
१- इस पद्य में कवि रसखान का कृष्ण और उनसे जुड़ी वस्तुओं के प्रति असीम प्रेम प्रकट हुआ है।
२- रसखान ने श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम् सखा, स्वामी, पुत्र, माता-पिता सर्वस्व माना है। उनकी भक्ति में किसी प्रकार का कोई भेदभाव, कोई प्रतिकूलता या कोई संकोच नहीं है। वे श्री कृष्ण के प्रति अतुलनीय प्रेम और समर्पण का भाव रखते हैं।
३- भाषा- ब्रजभाषा, गुण- प्रसाद, छंद- सवैया, शैली- मुक्तक, रस- भक्ति एवं शांत
शब्दार्थ- मानुष- मनुष्य, धेनु- गाय, मँझारन- मध्य, पाहन- पत्थर, गिरि- पर्वत, पुरंदर- इंद्र, खग- पक्षी, बसेरो- बसना, कालिंदी- यमुना, कूल- किनारा, डारन- डाल
आजु गई हुती भोर ही हौं, रसखानि रई वहि नंद के भौनहिं। वाको जियौ जुग लाख करोर, जसोमति को सुख जात कह्यो नहिं।। तेल लगाइ लगाइ कै अँजन, भौंहें बनाइ बनाइ डिठौनहिं। डारि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौ चुचकारत छौनहिं ।।2।। |
प्रसंग- प्रस्तुत सवैया में रसखान ने श्रीकृष्ण के प्रति माता यशोदा के बाल प्रेम का वर्णन किया है। गोपिकाओं द्वारा श्रीकृष्ण को आशीष दिया गया है।
सवैये की व्याख्या- एक सखी दूसरे से कहती है कि हे सखी आज प्रात:काल मैं नन्द के भवन गयी थी। वह कृष्ण लाख करोड़ों युगों तक जीवित रहे। माता यशोदा को सुख का तो ठिकाना ही कहाँ हैं? वह कृष्ण के शरीर में तेल और आँखों में काजल लगा रही थी। सुंदर सी भौहें बनाकर बुरी नजर से बचने के नजर का टीका लगा रही हैं। गले में सोने के हार को डालकर अपना सर्वस्व न्योछावर करने की दृष्टि से प्यारे पुत्र को पुचकार कर देख रही हैं।
काव्य सौंदर्य
१- अनुप्रास अलंकार ‘जियौ जुग’, ‘तेल लगाई’ और ‘हमेलनि हार’ में क्रमशः ‘ज’, ‘त’ और ‘ह’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
२- यमक अलंकार ‘लगाइ लगाइ’ और ‘बनाइ बनाइ’ यहाँ एक ही शब्द की बार-बार पुनरावृत्ति हुई है, परन्तु उतनी ही बार उसका अर्थ अलग-अलग है। इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।
३- भाषा- ब्रजभाषा, गुण- प्रसाद, छंद- सवैया, शैली- चित्रात्मक व मुक्तक, रस- वात्सल्य
शब्दार्थ- भोर- प्रातः, भौनहिं- भवन, करोर- करोड़, अँजन- काजल, डिठौनहिं- नजर उतारने वाला टीका, निहारत- देखना, वारत- न्योछावर करना, चुचकारत- पुचकारना, छौनहिं- पुत्र
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैजनी बाजति पीरी कछोटी।। वा छबि कों रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी। काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सों लै गयौ माखन-रोटी ।।3।। |
प्रसंग- प्रस्तुत सवैये में श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप पर मोहित होकर एक गोपी दूसरी गोपी से उनकी सुंदरता का बखान करती है। रसखान कहते हैं श्रीकृष्ण की सुंदरता के आगे सैकड़ो कामदेव की सुंदरता फीकी है।
सवैये की व्याख्या- धूल से भरे हुए श्रीकृष्ण अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं। वैसी ही सुंदर उनके सिर पर बनी चोटी लग रही है। खेलते खाते हुए आँगन में घूम रहे हैं, पीली कछोटी पहने हुए पैरों में पायल की झुनझुन आवाज बज रही है। रसखान जी कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण के इस सौंदर्य पर कामदेव की करोड़ों कलानिधियाँ न्योछावर हो जा रही हैं। आगे वह कहते हैं कि वह कौआ बहुत ही भाग्यशाली था जो श्रीकृष्ण के हाथ से मक्खन और रोटी लेकर उड़ गया।
काव्य सौंदर्य
१- प्रस्तुत पद्यांश में कौए को भाग्यशाली बताया गया है, क्योंकि कौए को संसार के सर्वशक्तिमान और प्रभु श्रीकृष्ण के हाथ से मक्खन और रोटी छीनकर खाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है
२- अनुप्रास अलंकार ‘सोभित स्यामजू’, ‘खेलत खात’, ‘पग पैंजनी’ और ‘काम कला’ में क्रमशः ‘स’, ‘ख’, ‘प’ और ‘क’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार है।
३- भाषा- ब्रजभाषा, गुण- माधुर्य, छंद- सवैया, शैली- चित्रात्मक व मुक्तक, रस- वात्सल्य
शब्दार्थ- धूरि- धूल, स्यामजू- कृष्ण, पग- पैर, पैजनी- पायल, पीरी- पीली, बिलोकत- देखना, वारत- न्योछावर करना, काम- कामदेव, कोटी- करोड़, काग- कौआ, भाग- भाग्य,
जा दिन तें वह नंद को छोहरा, या बन धेनु चराइ गयौ है। मोहिनि ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है।। वा दिन सो कछु टोना सो कै, रसखानि हियै मैं समाइ गयौ है। कोऊ न काहू की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर, बिकाइ गयौ है।।4।। |
प्रसंग- प्रस्तुत सवैया में ब्रज की गोपियों पर श्रीकृष्ण के मनोहारी प्रभाव का सुंदर चित्रण किया है। गोपिकाएँ पूरी तरह से श्रीकृष्ण के वशीभूत हो गयी हैं।
सवैये की व्याख्या- गोपिकाएँ कह रही हैं कि जिस दिन से वह नंद का लड़का इस वन में गायों को चराकर गया है, मोहिनी सुर में गोधन के गीत को गाकर, बांसुरी को बजाकर सबको अपनी तरफ आकर्षित कर गया है। उस दिन से ही वह हृदय में समा गया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे वह हमलोगों के ऊपर कुछ जादू सा कर गया है। कोई किसी के मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रख रहा है क्योंकि ब्रज के सभी लोग कृष्ण के हाथों बिक गये हैं।
काव्य सौंदर्य
1- अनुप्रास अलंकार ‘बन धेनु’, ‘बजाइ रिझाइ’ और ‘काहू की कानि करै’ में क्रमशः ‘न’, ‘इ’ और ‘क’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से अनुप्रास अलंकार है। उत्प्रेक्षा अलंकार ‘कछु टोना सो’ यहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना व्यक्त की गई है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।
2- अतिशयोक्ति अलंकार पूरे पद्य में श्रीकृष्ण की बाँसुरी का वर्णन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है, जिस कारण यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।
3- भाषा- ब्रजभाषा, गुण- माधुर्य, छंद- सवैया, शैली- चित्रात्मक व मुक्तक, रस- शृंगार
शब्दार्थ- छोहरा- लड़का, मोहिनि- मोहित या आकर्षित करना, ताननि- सुर या धुन, बेनु- बांसुरी, टोना- जादू, हियै- हृदय, सिगरो- संपूर्ण,
कान्ह भए बस बाँसुरी के, अब कौन सखी, हमकों चहिहै। निसद्यौस रहै सँग-साथ लगी, यह सौतिन तापन क्यों सहिहै। जिन मोहि लियौ मनमोहन कौं, रसखानि सदा हमकौं दहिहै। मिलि आऔ सबै सखी, भागि चलें अब तो ब्रज में बँसुरी रहिहै।।5।। |
प्रसंग- प्रस्तुत सवैया में कवि ने गोपियों के श्रीकृष्ण की बाँसुरी के प्रति सौतनरूपी भाव का चित्रण किया है। गोपिकाएँ बांसुरी को अपनी सौत बताकर उससे घृणा करती हैं।
सवैये की व्याख्या- गोपिकाएँ बांसुरी से परेशान होकर कह रही हैं कि कृष्ण अब तो पूरी तरह से बांसुरी के वशीभूत गये हैं। अब हमें कौन चाहेगा? दिन-रात प्रत्येक क्षण यह उसको अपने साथ लिए रहते हैं। इस सौत रूपी बांसुरी के ताप को हमलोग क्यों सहें। जिस बांसुरी ने कृष्ण को अपनी तरफ मोहित कर लिया है, उसको देखकर हमें ईर्ष्या होती है। बांसुरी से परेशान होकर गोपिकाएँ कहती हैं कि हे सखी आओ मिलकर हम सब भाग चलें क्योंकि ब्रज में अब तो केवल बांसुरी ही रहेगी।
काव्य सौंदर्य-
१- अनुप्रास अलंकार ‘बस बाँसुरी’, ‘संग साथ’ और ‘सबै सखि’ में क्रमशः ‘ब’, ‘स’ और ‘स’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
२- रूपक अलंकार यहाँ गोपियों की सौतन रूपी बाँसुरी का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।
३- भाषा- ब्रजभाषा, गुण- माधुर्य, छंद- सवैया, शैली- मुक्तक, रस- शृंगार
शब्दार्थ- चहिहै- चाहना, निसद्यौस- दिन रात, मोहि- आकर्षित करना, मनमोहन- कृष्ण
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी। ओढ़ि पितम्बर लै लकुटी, बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी। भावतो वोहि मेरो रसखानि, सो तेरे कहें सब स्वाँग करौंगी। या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरौंगी ।।6।। |
प्रसंग- प्रस्तुत सवैया में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम से व्याकुल गोपियों का वर्णन किया गया है। एक गोपी दूसरे से कहती है कि हे सखी यदि कृष्ण मुझे मिल जाये तो तुम जो-जो स्वाँग रचने के लिए कहोगी वह सब मैं करूँगी।
व्याख्या- एक गोपिका दूसरी गोपिका से कहती है कि हे सखी मैं मोर के पंख को सिर के ऊपर धारण करूँगी, गुंज की माला को गले में पहनूँगी, पीतांबर ओढ़कर, लकुटी को लेकर ग्वालबालों के साथ इधर उधर घूमूँगी। श्रीकृष्ण को जो-जो करना अच्छा लगता है। वह सब रूप तुम्हारे कहने से धारण करूँगी। लेकिन जिस मुरली को श्रीकृष्ण अपने ओठों पर धारण कर लिये है उसे मैं कभी नहीं अपने ओठों पर रखूँगी।
काव्य सौंदर्य
१- अनुप्रास अलंकार ‘गोधन ग्वारन’, ‘सब स्वाँग’ और ‘मेरी रसखानि’ में क्रमशः ‘ग’, ‘स’ और ‘र’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
२- यमक अलंकार मुरली मुरलीधर में मुरली (बाँसुरी) और मुरलीधर
(श्रीकृष्ण) के लिए तथा अधरान धरी अधरा न धरौंगी में अधरान (होंठों पर), अधरा (बाँसुरी) अर्थात् एक ही पंक्ति में समान शब्दों का दो बार प्रयोग किया गया है, परन्तु उनके अर्थ अलग-अलग हैं, इसलिए यहाँ यमक अलंकार है।
३- भाषा- ब्रजभाषा, गुण- माधुर्य, छंद- सवैया, शैली- मुक्तक, रस- शृंगार।
शब्दार्थ- गरें- गले, पहिरौंगी- पहनना, फिरौंगी- घुमना, भावतो- अच्छा लगना, अधर- ओठ
कवित्त की व्याख्या व भावार्थ / kavitt ki vyakhya
गोरज बिराजै भाल लहलही बनमाल आगे गैयाँ पाछें ग्वाल गावै मृदु बानि री। तैसी धुनि बाँसुरी की मधुर मधुर, जैसी बंक चितवनि मंद-मंद मुसकानि री। कदम बिटप के निकट तटिनी के तट अटा चढ़ि चाहि पीत पट फहरानि री। रस बरसावै तन-तपनि बुझावै नैन, प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री।।7।। |
प्रसंग- प्रस्तुत कवित्त में श्रीकृष्ण ग्वालवालों के साथ जब गाय को चराकर वापस घर की तरफ जा रहे हैं तो उस समय के सौंदर्य का चित्रण कवि ने किया है।
कवित्त की व्याख्या- गाय की खुर से उड़ने वाली धूल मस्तक पर लग कर सुशोभित हो रही है। उनके गले में वन पुष्पों की माला पड़ी हुई है। आगे गायें चल रही हैं पीछे-पीछे मधुर वाणी में गाते हुए ग्वालबाल चल रहे हैं। बाँसुरी की मधुर-मधुर ध्वनि जैसी सुंदर लग रही है, वैसी ही मंद-मंद मुस्कान के साथ तिरछी नजर। कदंब वृक्ष के समीप यमुना नदी के किनारे अट्टालिका पर चढ़कर जब वह अपना पीला वस्त्र फहराते हैं तो ऐसा लगता है मानों लोगों के शारीरिक ताप रूपी कष्ट को दूर करने के लिए नेत्रों से आनंद रूपी रस वर्षा कर रहे हैं। लोगों को अपनी तरफ मंत्रमुग्ध सा करते हुए चले जा रहे हैं।
शब्दार्थ– भाल- मस्तक, बिराजै- सुशोभित होना, धुनि- ध्वनि, बंक- तिरछी, चितवनि- दृष्टि, बिटप- वृक्ष, तटिनी- नदी, तट- किनारा, पीत पट- पीला वस्त्र, तन-तपनि- शारीरिक ताप, रिझावै- आकर्षित