जातककथा का हिन्दी अनुवाद jatak katha anuvad class 12 up board को पढ़ेंगे यह पाठ संस्कृत दिग्दर्शिका से लिया गया है।
जातककथा का हिन्दी अनुवाद क्लास 12 up board
उलूकजातकम् का अनुवाद
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के ‘जातक कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम्’ नामक शीर्षक से लिया गया है। इस कथा राजा के महत्त्व को बताया गया है।
अतीते प्रथमकल्पे जनाः एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्तं सर्वाकारपरिपूर्णं पुरुषं राजानमकुर्वन्। चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एकं सिंहं राजानमकुर्वन्। ततः शकुनिगणाः हिमवत्-प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते परस्परमवलोकयन्तः एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं नो रोचते’ इत्यवोचन । |
अनुवाद – विगत प्रथम कल्प में मनुष्यों ने एक सुन्दर, सौभाग्यशाली एवं समस्त सुलक्षणों से युक्त पुरुष को राजा बनाया। चौपायों या पशुओं ने भी एकत्रित होकर एक सिंह को राजा बनाया। तब पक्षियों ने हिमालय प्रदेश में एक शिलातल पर इकट्ठे होकर कहा- “मनुष्यों में राजा दीख पड़ता है, वैसे ही चौपायों में भी, किन्तु हमारे बीच कोई राजा नहीं है। राजा के बिना रहना उचित नहीं। हमें भी किसी को राजा के पद पर नियुक्त करना चाहिए। तत्पश्चात् वे एक-दूसरे को देखते हुए एक उल्लू को देखकर कहा ‘यह हमको पसन्द है।”
अथैकः शकुनिः सर्वेषां मध्यादाशयग्रहणार्थं त्रिकृत्वः अश्रावयत्। ततः एकः काकः उत्थाय ‘तिष्ठ तावत्’ अस्य एतस्मिन् राज्याभिषेककाले एवंरूपं मुखं, क्रुद्धस्य च कीदृशं भविष्यति ! अनेन हि क्रुद्धेन अवलोकिताः वयं तप्तकटाहे प्रक्षिप्तास्तिला इव तत्र तत्रैव धडक्ष्यामः। ईदृशो राजा महां न रोचते इत्याह- |
अनुवाद – इसके बाद एक पक्षी ने सबके मध्य मत जानने के लिए तीन बार सुनाया। तब एक कौआ उठकर बोला- “थोड़ा ठहरो, इसका राज्याभिषेक के समय ही ऐसा (भयानक) मुख है तो क्रुद्ध होने पर कैसा होगा? इसके क्रुद्ध होकर देखने पर तो हम लोग गर्म कड़ाही में डाले गये तिलों की तरह जहाँ-के-तहाँ ही जल-भुन जाएँगे। ऐसा राजा मुझे अच्छा नहीं लगता।
न मे रोचते भद्रं वः उलूकस्याभिषेचनम्। अक्रुद्धस्य मुखं पश्य कथं क्रुद्धो भविष्यति ।। |
अनुवाद– आप लोगों का इस उल्लू को राजा बनाना मुझे उचित नहीं लगता। इसके क्रोधहीन मुख को ही देखो, कुद्ध होने पर यह कैसा दिखेगा। अर्थात् क्रोधित होने पर बहुत ही भद्दा दिखेगा।
स एवमुक्त्वा ‘मह्यं न रोचते’ ‘मह्यं न रोचते’ इति विरुवन् आकाशे उदपतत्। उलूकोऽपि उत्थाय एनमन्वधावत्। तत आरभ्य तौ अन्योन्यवैरिणौ जातौ। शकुनयः अपि सुवर्णहंसं राजानं कृत्वा अगमन् |
अनुवाद– वह ऐसा कहकर ‘मुझे अच्छा नहीं लगता’, ‘मुझे अच्छा नहीं लगता’ चिल्लाता हुआ आकाश में उड़ गया। उल्लू ने भी उठकर उसका पीछा किया । तब से ही दोनों एक-दूसरे के शत्रु हो गये है। पक्षी भी सुवर्ण हंस को राजा बनाकर चले गये।
उलूकजातकम् का शब्दार्थ
अतीते- विगत या बीते, अभिरूपम्- सुन्दर, सर्वाकारपरिपूर्ण > सर्व + आकार+परिपूर्णम्- संपूर्ण आकृति से परिपूर्ण, चतुष्पदाः- पशु, सन्निपत्य- एकत्रित होकर, शुकनिगणाः- पक्षी, प्रज्ञायते- जाना जाता है, चतुष्पदेषु- जानवरों में, पुनरन्तरे > पुनः + अन्तरे- किन्तु हमारे बीच, अराजकः- राजा के बिना, स्थापयितव्यः- बैठाना या स्थापित करना चाहिए, आशयग्रहणार्थम्- मत जानने के लिए, त्रिकृत्वः- तीन बार, अश्रावयत्- सुनाया, तप्तकटाहे- गर्म कड़ाही में, प्रक्षिप्तास्तिला > प्रक्षिप्ताः + तिलाः -डाले गए तिल, धक्ष्यामः – भुन जाएँगे, विरुवन -चिल्लाता हुआ, उदपतत् -उड़ गया, एनमन्वधावत् > एनम् + अन्वधावत- इसके पीछे दौड़ा
नृत्यजातकम् का अनुवाद
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत दिग्दर्शिका’ के जातककथा’ पाठ के ‘नृत्यजातकम्’ शीर्षक से लिया गया है। इस पाठ का संदेश यह है कि आशा से अधिक मिलने पर व्यक्ति को संयम नहीं खोना चाहिए।
अतीते प्रथमकल्पे चतुष्पदाः सिंहं राजानमकुर्वन्। मत्स्या आनन्दमत्स्यं, शकुनयः सुवर्णहंसम्। तस्य पुनः सुवर्णराजहंसस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत्। स तस्यै वरमदात् यत् सा आत्मनश्चित्तरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराजः तस्यै वरं दत्त्वा हिमवति शकुनिसङ्गे संन्यपतत्। नानाप्रकाराः हंसमयूरादयः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन् महति पाषाणतले संन्यपतन्। |
अनुवाद- विगत प्रथम कल्प में पशुओं ने सिंह को राजा बनाया। मछलियों ने आनन्द मछली को एवं पक्षियों ने सुवर्ण हंस को राजा बनाया। उस सुवर्ण राजहंस की पुत्री हंसपोतिका अत्यधिक रूपवती थी। उस हंसराज ने उस हंसकुमारी को वर दिया कि वह अपने इच्छानुसार पति का वरण करे। हंसराज ने उसे वर देकर हिमालय के पक्षियों को इकट्ठा कराया। विभिन्न प्रकार के हंस, मोर पक्षीगण आकर एक विशाल शिला पर इकट्ठे हुए।
हंसराजः आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकम् आगत्य वृणुयात् इति दुहितरमादिदेश। सा शकुनसङ्घ अवलोकयन्ती मणिवर्णग्रीवं चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा ‘अयं मे स्वामिको भवतु’ इत्यभाषत। मयूरः ‘अद्यापि तावन्मे बलं न पश्यसि’ इति अतिगर्वेण लज्जाञ्च त्यक्त्वा तावन्महतः शकुनिसङ्घस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान् नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्णराजहंसः लज्जितः ‘अस्य नैव ह्रीः अस्ति न बर्हाणां समुत्थाने लज्जा। नास्मै गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि’ |
अनुवाद- हंसराज ने पुत्री को आदेश दिया कि वह आकर अपने मनपसन्द पति को चुने। उसने पक्षी समुदाय पर दृष्टि डालते हुए नीलमणि के रंग की गर्दन और रंग-बिरंगे पंखों वाले मोर को देखकर कहा कि ‘यह मेरा स्वामी हो।’ मोर ने कहा मेरे बल को तुम नहीं जानती हो। बड़े गर्व से निर्लज्जतापूर्वक उस बड़े पक्षी समुदाय के बीच पंख फैलाकर नाचना शुरू किया और नाचते हुए नग्न हो गया। सुवर्ण राजहंस ने लज्जित होकर कहा- “इसे न तो संकोच है और न ही पंखों को उठाने में लज्जा। इस निर्लज्ज को मैं अपनी पुत्री नही दूँगा। यह मेरी पुत्री से विवाह योग्य नहीं है”।
हंसराजः तदैव परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय दुहितरमदात्। मयूरो हंसपोतिकामप्राप्य लज्जितः तस्मात् स्थानात् पलायितः। हंसराजोऽपि हृष्टमानसः स्वगृहम् अगच्छत् |
अनुवाद- हंसराज ने उसी परिषद् के बीच अपने भांजे हंसकुमार को पुत्री दे दी। मोर हंसपुत्री को न पाकर लज्जित होकर उस स्थान से भाग गया। हंसराज भी प्रसन्न मन से अपने घर को चला गया।
नृत्यजातकम् का शब्दार्थ
दुहिता -पुत्री, वरमदात् > वरम् + अदात् – वर दिया, आत्मनश्चित्तन्तरुचितं > आत्मनः चित्त + रुचितम् -अपने मनपसन्द, वृणुयात् -वरण करे, मणिवर्णग्रीवं = मणि के रंग के समान गर्दन वाले, चित्रपेक्षणम- रंग-बिरंगे पंखों वाले, लज्जाञ्च लज्जाम् च और लज्जा को, प्रतिच्छन्न = बिना ढका (नंगा), ह्री: विनय, बर्हाणां- पंखों को, समुत्थाने- उठाने में, नास्मै > न + अस्मै- इसे नहीं, गतत्रपाय- निर्लज्ज, परिषन्मध्ये> परिषत् + मध्ये- सभा के बीच, भागिनेयाय- भांजे के लिए, हंसपोतिकाम् = हंस की पुत्री