धनुष भंग व्याख्या व भावार्थ क्लास 10 up बोर्ड/ dhanush bhang vyakhya

धनुष भंग के भावार्थ व व्याख्या dhansush bhang vykhya and bhavarth को इस अंश में पढ़ेंगे। यह पाठ up board class 10 से काव्य खंड के अन्तर्गत आता है। धनुष भंग का संदर्भ, प्रसंग और काव्य सौन्दर्य को भी देखेंगे। सभी के संदर्भ और प्रसंग एक समान होंगे।

धनुष भंग व्याख्या व भावार्थ क्लास 12 up board

संदर्भ– प्रस्तुत पद्य हिन्दी के धनुष भंग नामक पाठ से लिया गया है। जिसके रचयिता ‘गोस्वामी तुलसीदास’ उक्त पाठ उक्त लेखक के महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के ‘बालकाण्ड’ से लिया गया है।

प्रसंग– धनुष भंग उस समय का प्रसंग है जब ऋषि वशिष्ठ राक्षसों के विनाश के लिए राम और लक्ष्मण को अपने साथ ले जाते हैं।ये राक्षस लोग ऋषि मुनियों की योग साधना में व्यवधान डालते थे। राम और लक्ष्मण राक्षसों का वध कर देते हैं जिससे सभी लोग सुरक्षित हो जाते हैं। उसी दौरान राजा जनक के दरबार में स्वयंवर का आयोजन था, जिसकी शर्त यह थी कि जो शिव धनुष को तोड़ेगा सीता से उसका विवाह हो जाएगा। इस स्वयंवर में ऋषि वशिष्ठ राम और लक्ष्मण को भी ले जाते हैं।

धनुष भंग की व्याख्या व भावार्थ प्रथम भाग

दो०- उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बालपतंग। 
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥॥॥

व्याख्या व भावार्थ– उदयाचल पर्वत रूपी मंच पर श्रीराम रूपी बाल सूर्य के उदित होते ही संत रूपी कमल विकसित हो जाते हैं और उनके भ्रमर रूपी नेत्र हर्षित या आनंदित हो जाते है।

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।। 
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने ।। 

व्याख्या व भावार्थ- राजाओं की आशारूपी रात्रि नष्ट हो जाती है। वाणी रूपी नक्षत्रों की पंक्तियों के प्रकाश समाप्त हो गए हैं। अभिमानी राजा रूपी कुमुद संकुचित हो गए हैं। कपटी राजा उल्लू की समान छिप गए हैं

भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा।। 

व्याख्या व भावार्थ- सभी मुनि और चकवा रूपी देव अपने सेवा भाव को प्रकट करने के उद्देश्य से पुष्प की वर्षा कर रहे हैं।अत्यधिक प्रेम के साथ गुरु के चरणों की वंदना करके  श्रीराम मुनि श्रेष्ठ से आज्ञा माँगते हैं।

सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी।। 

व्याख्या व भावार्थ- संपूर्ण संसार के स्वामी अर्थात् श्रीराम इतनी सहजता से चलते हैं कि जैसे कोई मतवाला, सुंदर और श्रेष्ठ हाथी चल रहा हो। श्रीराम की  इस चाल को देखकर नागर की सभी नर-नारी पुलकित हो जाते हैं और उनके शरीर में सुख का संचार हो जाता है।

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।। 
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहु रामु गनेस गोसाईं।।

व्याख्या व भावार्थ- सभी लोग अपने पितरों की, देवताओं कि व अपने द्वारा किए गए अच्छे कार्यों की वन्दना करते हुए कहते हैं कि यदि मेरे पूर्व जन्म में किए गए किसी पुण्य कर्म का प्रभाव है तो हे गणेश गोसाईं इस धनुष को श्रीराम जी कमल के नाल की भाँति तोड़ दें।

धनुष भंग की व्याख्या व भावार्थ द्वितीय भाग

दो०- रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ। 
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ ।।2।।

व्याख्या व भावार्थ- सीता की माता राम को प्रेमपूर्वक देखकर अपनी सखियों को समीप बुलाकर रोते हुए स्नेह से पूर्ण इस प्रकार के वचन को कहती है।

सखि सब कौतुकु देखनि हारे। जेउ कहावत हितू हमारे ।। 
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।

व्याख्या व भावार्थ- सीता की माता कहती हैं कि हे सखी जो हमारे सच्चे हितैषी कहलाते है वे सब आज इस तमाशा को देखने के लिए आये हुए है। कोई इन गुरु श्रेष्ठ को समझाकर क्यों नहीं कहता कि इस प्रकार के कोमलांगी बालक से धनुष तोड़ने की ज़िद करना ठीक नहीं है।

रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।।
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं।।

व्याख्या व भावार्थ- जिस शिवधनुष को रावण स्पर्श तक नहीं कर सका। जिसके सामने हारने कारण संपूर्ण राजाओं का अहंकार चूर-चूर हो गया। उस शिव धनुष को इस राजकुमार के हाथ में देना उसी प्रकार की कल्पना करना है। क्या कोई हंस का बच्चा मंदराचल पर्वत को उठा सकता है?

भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी।।
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी ।।

व्याख्या व भावार्थ- सीता के माता की चतुर सखी मधुर वाणी में बोलती है कि हे सखी जिसे देखकर बड़े-बड़े राजा अपने सयानेपन या चालाकी को भूल गए हैं, उनकी गणना छोटे में न करो क्योंकि ब्रह्म की स्थिति के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है

कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा ।। 
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु त्रिभुवन तम भागा।।

व्याख्या व भावार्थ- कहाँ एक तरफ अगस्त्य ऋषि और कहाँ एक तरफ विस्तृत समुद्र। उस विस्तृत समुद्र को अगस्त्य ऋषि सोख लिए जिस कारण से उनकी सुंदर कीर्ति संपूर्ण संसार में फैल गयी। सूर्यमंडल देखने में छोटा लगता है लेकिन सूर्य के उदित होते ही संसार में व्याप्त घोर अंधकार समाप्त हो जाता है।

धनुष भंग की व्याख्या व भावार्थ तृतीय भाग

दो०- मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब। 
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ॥3॥

व्याख्या व भावार्थ- मंत्र देखने में बहुत छोटा लगता है लेकिन उस मंत्र में ब्रह्म, विष्णु और महेश को अपने वश में कर लेने की शक्ति होती है। जिस प्रकार से मतवाले हाथी को अंकुश अपने वश में कर लेता है।

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे ।। 
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी।।

व्याख्या व भावार्थ- कामदेव पुष्परूपी धनुष-बाण को लेकर सम्पूर्ण संसार को अपने वश में किए हैं। सीता के माता की सहेली उनसे कहती है कि ही देवी सुनो इस शिवधनुष को श्रीराम ही तोड़ेंगे ऐसा मानकर के अपने संशय को छोड़ दो।

सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती ।। 
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदय बिनवति जेहि तेही ।।

व्याख्या व भावार्थ- सखी के वचन को सुनकर के सीता की माता का भय दूर हो गया। जिस कारण से कष्ट मिट गया और राम के प्रति उनका प्रेम बढ़ गया। तब सीता जी राम को देखकर के हृदय में भिन्न-भिन्न देवताओं को मनाने लगती हैं।

मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।

व्याख्या व भावार्थ- मन ही मन व्याकुल होकर के शंकर पार्वती को मनाते हुए कह रहीं हैं कि हे देव मुझ पर प्रसन्न होइए। अपने सेवक की सेवा-भाव का फल देते हुए धनुष के भारीपन को हर लीजिए।

गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ।।
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।

व्याख्या व भावार्थ- हे गणों के नायक वर को देने वाले भगवान गणेश आजतक मैंने आपकी सेवा की है। बार-बार मैं आपसे विनती कर रही हूँ कि धनुष के भारीपन को हर करके उसे बहुत हल्का कर दो।

धनुष भंग की व्याख्या व भावार्थ चतुर्थ भाग

दो०- देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर। 
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥4॥

व्याख्या व भावार्थ- श्रीराम के शरीर को देखकर के धैर्य धारण कर वह बार-बार देवताओं को मना रही हैं। ऐसा करने में उनका नेत्र प्रेम रूपी अश्रु से भर जाता है और शरीर में रोमांस के भाव संचरित हो जाते हैं।

नीके निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।। 

व्याख्या व भावार्थ- नेत्रों के सौंदर्य को भलीभाँति देखकर के पिता के प्रण को याद करके मन ही मन बहुत दुखी होती हैं। सोचती हैं कि अरे पिता ने कैसी जिद्द ठानी है। कुछ लाभ-हानि नहीं समझ रहे है।

सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई ।।
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ।।

व्याख्या व भावार्थ- मंत्रीमंडल भय के कारण राजा को सीख नहीं दे रहे हैं। विद्वानों की सभा में तो यह बहुत अनुचित हो रहा है। कहाँ वज्र के समान कठोर धनुष और कहाँ श्याम वर्ण के मृदु शरीर वाले ये बालक।

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।

व्याख्या व भावार्थ- हे परमात्मा किस प्रकार मैं धैर्य धारण करूँ, क्या कभी कोई पुष्प का कण हीरा को बेध सकता है। सभा में उपस्थित सभी लोगों की बुद्धि भ्रमित हो गई है। अब तो हे शिव धनुष मुझे तुम्हारे ऊपर ही भरोसा है।

निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं।।

व्याख्या व भावार्थ- ख़ुद की जड़ता लोगों पर डाल कर श्रीराम को देखकर हल्का हो जाओ। सीता के मन में राम के प्रति अत्यधिक प्रेम था। आँखों की पलक को गिरने में लगने वाला समय सीता को एक-एक युग के समान लग रहा था।

धनुष भंग की व्याख्या व भावार्थ पंचम भाग

दो०- प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल। 
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल ।॥5॥

व्याख्या व भावार्थ- श्रीराम को देखकर पुन: पृथ्वी को देखती हैं। इस क्रिया में उनके चंचल नेत्र सुशोभित हो रहे हैं। मानों चन्द्रमंडल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रही हों।

गिरा अनिलि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी ।।
लोचन जल रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना।। 

व्याख्या व भावार्थ- सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। लज्जा रूपी वाणी के कारण सीता के मन की बात प्रकाश में नहीं आ पा रही है। नेत्रों का अश्रु नेत्र के कोने में जाकर रुक गया है। वैसे ही जैसे किसी कंजूस व्यक्ति की संपत्ति घर में रखी की रखी रह जाती है।

सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ।। 
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।। 

व्याख्या व भावार्थ- अपनी बढ़ी हुई व्याकुलता को जानकर सीतजी संकुचित हो गयी धैर्य धारण करके हृदय में विश्वास ले आयी कि यदि तन, मन और वाणी से मेरा प्रण सच्चा है तो श्रीराम के कमलवत् चरणों में मेरा हृदय अनुरक्त हो।

तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी।। 
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ।। 

व्याख्या व भावार्थ- संपूर्ण हृदय में निवास करने वाले हे भगवान मुझे श्रीराम की दासी बना दो। जिसका जिसपर सत्यनिष्ठ प्रेम होता है वह उसको अवश्य मिल जाता है इसमें कोई संदेह नहीं है।

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।। 
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुड़ लघु ब्यालहि जैसें।।

व्याख्या व भावार्थ- प्रभु श्रीराम के शरीर को प्रेमपूर्वक हृदय में दृढ़ता से बैठा लेती हैं। कृपा के सागर श्रीराम सीता की मन: स्थिति को जान जाते हैं। वह सीता की तरफ एक बार देखकर धनुष की तरफ़ ऐसे ही देखते हैं जैसे कोई गरुण छोटे से सर्प को देख रहा हो।

धनुष भंग की व्याख्या व भावार्थ षष्ठम् भाग

दो०- लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु। 
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रांडु॥6॥

व्याख्या व भावार्थ- रघुकुलवंशी श्रीराम शिव धनुष की तरफ उसे तोड़ने के उद्देश्य से देख रहे हैं। तभी पुलकित शरीर वाले लक्ष्मणजी पैरों से ब्रह्मांड को दबाकर बोलते हैं कि-

दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।।
राम चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।

व्याख्या व भावार्थ- हे दिग्गजों, हे कच्छपों, हे शेष, हे वाराह धैर्य धारण करके दृढ़ता से पृथ्वी को पकड़े रहो जिससे यह हिलने न पाये। श्रीराम शिव धनुष को तोड़ना चाह रहे हैं। आलोगों को मेरा यह आदेश है सभी सजग हो जाओ।

चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू ।।

व्याख्या व भावार्थ- धनुष के समीप श्रीराम जब आते है वहाँ पर उपस्थित सभी नर और नारी देवताओं को और अपने द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को मनाते हैं। सभी का संशय और। अज्ञान, मंद बुद्धि राजाओं का अभिमान,

भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ।।
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।

व्याख्या व भावार्थ- परशुरामजी के गर्व की गुरुता, देवताओं और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता या भय,  सीताजी का सोच, राजा जनक का पश्चाताप, दावानल के समान रानी का दारुण दुख।

संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई।।
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोऊ कड़हारू ।।

व्याख्या व भावार्थ- ये सभी लोग शिव धनुष रूपी बड़ी नौका पाकर उस पर समाज बनाकर एक साथ चढ़ गए है। श्रीराम के बाहुबल से संसार रूपी भावसागर से पार जाना चाहते है। लेकिन इस नौका को चलाने वाला नाविक नहीं है।

धनुष भंग की व्याख्या व भावार्थ सप्तम भाग

दो०- राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि । 
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥7॥

व्याख्या व भावार्थ- श्रीराम लोगों को देखते है तो सभी को चित्र के समान स्थिर पाते हैं। जब वह सीता को देखते हैं तो उन्हें विशेष व्याकुल पाते हैं।

देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।। 
तृषित बारि बिन जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।

व्याख्या व भावार्थ- व्याकुल सीता को देखते हैं तो पाते हैं कि उनका एक-एक पल एक-एक युग के समान बीत रहा है। प्यासा व्यक्ति  जल के बिना प्राण त्याग देता है। मृत्यु के पश्चात मृत व्यक्ति को अमृत रूपी तालाब से क्या फायदा। अर्थात् कोई लाभ नहीं

का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।
अस जियें जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ।।

व्याख्या व भावार्थ- फसल सूख जाने के बाद होने वाली वर्षा का कोई लाभ नहीं होता। समय बीत जाने के बाद पश्चाताप करने से कोई लाभ नहीं। मन में सीता की इस प्रकार की स्थिति को जानकर श्रीराम पुलकित हो जाते हैं और विशेष प्रेम से उनकी तरफ़ दृष्टि डालते हैं।

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवं उठाइ धनु लीन्हा।।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।

व्याख्या व भावार्थ- मन ही मन गुरुदेव को प्रणाम करके,बड़ी आसानी से अपने लिए अत्यधिक छोटी धनुष को उठा लेते हैं। जब श्रीराम धनुष को हाथ में लेते हैं तो आकाश में बिजली चमकती है। पुनः आकाश धनुमंडल के समान बन जाता है।

लेत चढ़ावत खैचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।। 
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।

व्याख्या व भावार्थ- सभा में उपस्थित लोग धनुष को उठाते समय खींचते समय नहीं देख पाते। ठीक उसी समय श्रीराम धनुष को तोड़ देते हैं। धनुष के टूटते ही संसार में अति कठोर ध्वनि होती है।

छन्द- भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। 
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरूम कलमले ॥ 
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं। 
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं।

व्याख्या व भावार्थ- संसार भयंकर और कठोर ध्वनि से भर गया। सूर्य के घोड़े मुख्य मार्ग को त्याग कर अन्य मार्ग पर चलने लगे। दिग्गज चिघ्घाड़ने लगे, पृथ्वी हिलने लगी, शेषनाग, वाराह और कुरुम बेचैन हो गये। देवता, राक्षस और मुनि सभी व्याकुल होकर कानों पर हाथ रखकर विचार करने लगे। लोगों को पता चलता है कि श्रीराम ने शिवधनुष तोड़ दिया। चारों तरफ श्रीराम के जयगान से गूंज उठता है।

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