प्रेम माधुरी यूपी बोर्ड क्लास 9 की सरल व्याख्या पढ़ेंगे। प्रेम माधुरी के कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र है।
कूकै लगीं कोइलें कदंबन पै बैठि फेरि
धोए-धोए पात हिलि-हिलि सरसै लगे।
बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरि
देखि के सँजोगी-जन हिय हरसै लगे।।
हरी भई भूमि सीरी पवन चलन लागी
लखि ‘हरिचंद’ फेरि प्रान तरसै लगे।
फेरि झूमि-झूमि बरषा की रितु आई फेरि
बादर निगोरे झुकि झुकि बरसै लगे ।।1।।
भावार्थ– कदंब वृक्ष पर बैठी हुई कोयले कूकने लगी, वृक्ष के धुले-धुले पत्ते हिल-हिल कर लोगों को आनंदित कर रहे हैं। मेंढक बोलने लगे मोर नाचने लगे प्रेमी जनों का हृदय प्रेम क्रीडा करने के लिए बेचैन हो उठा है। पृथ्वी हरे भरे पौधों से भर गई है। ठंडी वायू चल रही है जो लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर रही है। वर्षा ऋतु झूम-झूम कर पुनः आ गई और यह निगोड़े बादल झुक-झुककर बरसने लगे।
जिय पै जु होइ अधिकार तो बिचार कीजै
लोक-लाज, भलो-बुरो, भले निरधारिए।
नैन, श्रौन, कर, पग, सबै पर-बस भए
उतै चलि जात इन्हें कैसे कै सम्हारिए।
‘हरिचंद’ भई सब भाँति सों पराई हम
इन्हें ज्ञान कहि कहो कैसे कै निबारिए।
मन में रहै जो ताहि दीजिए बिसारि, मन
आपै बसै जामैं ताहि कैसे कै बिसारिए ।।2।।
भावार्थ – गोपीकाएं उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव यदि मेरे मन पर मेरा अधिकार हो तो हम लोक-लाज और भले-बुरे का निर्धारण कर ले, लेकिन हमारे नेत्र, कान, हाथ और पैर सब कुछ श्री कृष्ण के वश में हो गया है। जिस तरफ वह रहते हैं उसी तरफ हम गोपीकाएं बेचैनी के साथ आगे बढ़ जाती हैं। आगे वह कहती हैं कि हर प्रकार से हम पराये हो गए हैं। अब आप ही बताइए मेरे मन को किस प्रकार ज्ञान देकर उद्धार किया जा सकता है। मन में यदि कोई बात है तो उसे भुलाई जा सकती है लेकिन जब मन अपने आप ही जाकर के श्री कृष्णा में बस गया है तो उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है।
यह संग में लागियै डोलें सदा, बिन देखे न धीरज आनती हैं।
छिनहू जो वियोग परै ‘हरिचंद’, तो चाल प्रलै की सु ठानती हैं।
बरुनी में थिरैं न झपैं उझपैं, पल मैं न समाइबो जानती हैं।
पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना, अँखियाँ, दुखियाँ नहिं मानती हैं ।3।
भावार्थ– गोपीकाएं उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव हम श्री कृष्ण के साथ सदैव रहना चाहते हैं उनको देखे बिना हमें धैर्य नहीं आता। एक भी क्षण के लिए अगर वह हमसे दूर हो जाते हैं तो हम प्रलय की चाल अर्थात नेत्रों से अश्रु की धारा निकलने लगती है। हमारी बरौनी स्थिर होना जानती ही नहीं वह कभी खुलता है कभी बंद होती है। ठीक वही स्थिति हमारे पलकों की है। प्रिय श्री कृष्ण को देखे बिना हमारी दुखियारी आंखों को संतोष नहीं मिलता।
पहिले बहु भाँति भरोसो दयो, अब ही हम लाइ मिलावती हैं।
‘हरिचंद’ भरोसे रही उनके सखियाँ जो हमारी कहावती हैं।।
अब वेई जुदा है रहीं हम सों, उलटो मिलि कै समुझावती हैं।
पहिले तो लगाइ कै आग अरी! जल को अब आपुहिं धावती हैं।4।
भावार्थ – गोपीकाएं कहती हैं हमारी सखियां जो हमारी कहलाती थी, पहले हमें बहुत भांति से भरोसा दिलायी कि अभी हम तुमको श्री कृष्ण से मिला देती हैं। अब वही हमसे अलग होकर जा रही हैं और उल्टे हमको समझा रही है। अब हम किसके भरोसे रहे, पहले तो आग लगा दी अब आग लगाने के बाद उसको बुझाने के लिए पानी लेने के लिए दौड़ रही है। अर्थात श्री कृष्ण से मिलने की इच्छा मन में जागृत करके अब वे उसे पूरा नहीं कर रही है।
ऊधौ जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।
कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है।।
ये ब्रजबाला सबै इक सी, हरिचंद जू मण्डली ही बिगरी है।
एक जौ होय तो ज्ञान सिखाइए कूप ही में यहाँ भाँग परी है।।5।।
भावार्थ– गोपीकाएं उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव तुम उस सीधे मार्ग को पकड़ कर चले जाओ जहां पर तुम्हारे ज्ञान की गुदरी रखी हुई है। यहां पर तुम्हारी सिख को कोई नहीं मानने वाला है क्योंकि सभी श्याम के प्रेम में रंगे हुए हैं। सभी ब्रजबालाएं एक सी हैं। अर्थात पुरी की पुरी मंडली ही बिगड़ी हुई है। किसी एक को समझना हो तो समझ सकते हो लेकिन यहां तो कुएं में भांग पड़ने जैसी स्थिति है। अर्थात सभी गोपीकाएं कृष्ण के प्रेम में अपने आप को समर्पित कर दी हैं।
सखि आयो बसंत रितून को कंत, चहुँ दिसि फूलि रही सरसों।
बर सीतल मंद सुगंध समीर सतावन हार भयो गर सों।।
अब सुंदर साँवरो नंद किसोर कहै ‘हरिचंद’ गयो घर सों।
परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पाँय पिया परसों ।।6।।
भावार्थ– एक गोपिका दूसरी गोपिका से कहती है कि हे सखी ऋतुओं का स्वामी वसंत आ गया है। चारों दिशाओं में सरसों के फूल खिल गए हैं। श्रेष्ठ, शीतल, मंद और सुगंधित वायु हम लोगों को सताते हुए चल रही है। अब सुंदर श्याम नंदकिशोर घर से चले गए हैं। वह जाते समय कह गए थे कि मैं परसों आ जाऊंगा लेकिन परसों के इंतजार में बरसों बीत गए अभी तक वह आए नहीं।
इन दुखियान को न चैन सपनेहुँ मिल्यो,
तासों सदा व्याकुल बिकल अकुलायेंगी।
प्यारे हरिचंदजू की बीती जानि औधि, प्रान,
चाहत चले पै ये तो संग ना समायँगी।।
देखौ एक बारहू न नैन भरि तोहिं यातें
जौन-जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी।
बिना प्रान-प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय
मरेहू पै आँखें ये खुली ही रहि जायँगी।।7।।
भावार्थ– गोपिकाएं कहती हैं कि हम दुखियारी को सपनों में भी चैन नहीं है। कृष्ण के लिए हम सदैव आकुल और व्याकुल रहती हैं। प्यारे कृष्ण के आने की अवधि बीत जाने के बाद हमारे प्राण उसी अवधि के साथ चले जाना चाहते हैं। उनको देखे बिना अगर हमारे प्राण निकल जायेंगे तो जिस-जिस लोक जायेंगे वहां पछताएंगी। प्राण प्यारे के दर्शन के बिना मरने पर मेरी आँखें खुली की खुली ही रह जाएंगी।
सभी सहृदयों को सादर नमन ज्ञापित करता हूँ तथा अंतर्मन से उनका हार्दिक अभिनंदन एवं वंदन करता हूँ| मैं हिन्दी से डॉक्टरेट हूँ | हिन्दी संबंधी ज्ञान के आदान-प्रदान में मेरी रुचि है|