परिवर्तन कविता की व्याख्या ( pariwartan kavita ki vyakhya) को ho पढ़ेंगे यह कविता up board class 12 के अंतर्गत आता है। साथ ही साथ परिवर्तन कविता का भावार्थ और परिवर्तन कविता का सारांश पढ़ेंगे।
परिवर्तन कविता का सारांश
परिवर्तन कविता पंत के काव्य संग्रह पल्लव से लिया गया है। छायावादी कवि के रूप में पंत जी अतीत को भावना और कल्पना को बड़े ही मनोरम रुप से अनुरंजित किया है। उसके बाद कवि की दृष्टि आज के जीवन की विपन्नता, दीनता और दरिद्रता की ओर गयी है। अतीत और वर्तमान में जो यह असमानता दिखाई देता है उसे काल के प्रवाह में परिवर्तन के क्रम से घटित होते हुए दिखाकर परिवर्तनशीलता के प्रति अपने भावोद्गार प्रकट किये हैं। वस्तुतः ये यह कहना चाहते हैं कि इस जगत् में सब कुछ नाशवान और क्षणभंगुर है। सब कुछ बराबर बदलता रहता है।
परिवर्तन कविता की व्याख्या Parivartan kavita ki byakhya up board class 12
कहाँ आज वह पूर्ण पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत छवि जाल,
ज्योति चुंबित जगती का भाल?
राशि-राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार ?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत श्रृंगार,
(स्वर्ण भंगों के गंध विहार)
गूंज उठते थे बारंबार
सृष्टि के प्रथमोद्गार !
नग्न सुन्दरता थी सुकुमार
ऋद्धि औं’ सिद्धि अपार!
विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
अये, कहाँ वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दुख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण भ्रू-पात।
परिवर्तन कविता की व्याख्या- प्राचीन काल की संस्कृति, सभ्यता और सुवर्ण काल कहाँ है? दिशाओं के अंत तक व्याप्त सुंदर सौंदर्य जाल कहां है। ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होने वाला संसार का मस्तक कहां है? पृथ्वी के प्रत्येक स्थान पर विकसित होती हुई मानवता रूपी यौवन विस्तार कहां है? स्वर्ग का सौंदर्य जब आभार के साथ धरती पर प्रेम-क्रीडा करने के लिए उतर आया था। पुष्पों का सौंदर्य शाश्वत था। सुगंध के कारण स्वर्ण रूपी भौंरे उन पुष्पों पर भ्रमण करते हैं। जिस कारण से प्रथम ध्वनि के रूप में संसार गूंज उठता था। खुली हुई कोमल सुंदरता रिद्धियां और सिद्धियां चारो तरफ व्याप्त थी। विश्व का सुनहरा स्वप्न संसार का प्रथम प्रभात और वेद विख्यात सत्य कहां है? पहले लोग पाप, दुःख और दीनता से अनभिज्ञ थे। जन्म मरण से लोग अपरिचित थे। अर्थात् लिंगभेद नहीं था।
(2)
हाय! सब मिथ्या बात !
आज तो सौरभ का मधुमास
शिशिर में भरता सूनी साँस !
वही मधुत्रऋतु की गुंजित डाल
झुकी थी जो यौवन के भार,
अकिंचनता में निज तत्काल
सिहर उठती….. जीवन है भार !
आज पावस नद के उद्गार प्रात का सोने का संसार,
काल के बनते चिह्न कराल,
जला देती संध्या सी ज्वाल !
अखिल यौवन के रंग उभार
हड्डियों के हिलते कंकाल,
कचों के चिकने, काले व्याल,
केंचुली, काँस, सिवार,
गूँजते हैं सबके दिन चार, सभी फिर हाहाकार !
परिवर्तन कविता की व्याख्या- अरे! उक्त बताई गई बातें आज के समय में मिथ्या (समाप्त) हो चुकी हैं। आज वसंत की सुगंधित वायु चलती है तो लगता है जैसे शिशिर सुनी सांसें ले रहा हो। वसंत ऋतु में भौरों से गुंजायमान डालें यौवन के भार से दबी हुई हैं। अर्थात् वृक्षों की डालियां फल फूलों से लदी हैं। कुछ न हो पाने के कारण जीवन भार स्वरूप होकर कंपन्न कर रहा है। वर्षा ऋतु में नदी जल की अपार राशि से भर गई है। प्रातः काल सुनहली किरणों से भर गया है। आज तो काल के विकराल चिह्न बन गए हैं। संध्या में अग्नि की ज्वाला समाहित हो गई है। पहले यौवन या ताजगी के रंग बिखरे हुए थे। अब तो हड्डियां सुखकर कंकाल मात्र रह गई हैं। बाल चिकने काले सर्प से निकले केचुली, कांस और सिवार के समान भद्दे लग रहे हैं। सभी समय एक न एक दिन अवश्य परिवर्तित होता है। अर्थात् सुख है तो दुःख आयेगा। दुःख है तो सुख आयेगा।
(3)
आज बचपन का कोमल गात
जरा का पीला पात !
चार दिन सुखद चाँदनी रात
और फिर अंधकार अज्ञात !
शिशिर-सा झर नयनों का नीर
झुलस देता गालों के फूल !
प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर
अधर जाते अधरों को भूल !
मृदुल होठों का हिमजल हास
उड़ा जाता निःश्वास समीर,
सरल भौहों का शरदाकाश
घेर लेते घन, घिर गंभीर !
शून्य साँसों का विधुर वियोग
छुड़ाता अधर मधुर संयोग,
मिलन के पल केवल दो चार,
विरह के कल्प अपार !
अरे, वे अपलक चार नयन
आठ आँसू रोते निरुपाय,
उठे रोओ के आलिंगन कसक उठते काँटों से हाय!
परिवर्तन कविता की व्याख्या- बचपन का कोमल शरीर वृद्धावस्था में पहुंचकर पीले पत्ते के समान होकर झड़ जाता है। सुखद चाँदनी बस चार दिन की होती है। फिर उसके बाद लंबे समय के लिए उदासी का अंधकार छा जाता है। शिशिर ऋतु के समान नेत्रों से अश्रु रूपी जल निकलता है जो खिली हुई गालों की हसीं को आहत कर देता है। एक समय था जब ओठ एक-दूसरे का चुंबन करते थे। वृद्धावस्था आने के कारण वही ओठ एक-दूसरे को भूल गए हैं। कोमल ओठो पर जो हिमजल रूपी हँसी रहती थी आज हृदय से निकलती हुई निःश्वास रूपी वायु उस हँसी को समाप्त कर दी है। भौंहों रूपी शरद का आकाश गंभीरता के भाव से व्याप्त है। जिसको चारो तरफ से काले-काले बादल घेर रखे हैं। एक समय था जब व्यक्ति संयोग या मिलन की अवस्था में था। आज उसी व्यक्ति के जीवन में वियोग आ गया है। अर्थात् मिलना और बिछड़ना जीवन में लगा रहता है। मिलन के पल केवल दो चार दिन ही रहते हैं। बाकि समय में विषम वियोग ही मिलता है। नायक और नायिका के जो चार नेत्र हैं वे समय परिवर्तित होने के कारण आज आठ-आठ आंसू रो रहे हैं। दुःख के कारण शरीर के उठे हुए रोएं एक दूसरे से मिलने के लिए बेचैन हैं।
(4)
किसी को सोने के सुख साज
मिल गया यदि ऋण भी कुछ आज,
चुका लेता दुख कल ही ब्याज
काल को नहीं किसी की लाज!
विपुल मणि रत्नों का छविजाल,
इंद्रधनु की सी छटा विशाल-
विभव की विद्युत ज्वाल
चमक छिप जाती है तत्काल;
मोतियों जड़ी ओस की डार
हिला जाता चुपचाप बयार!
परिवर्तन कविता की व्याख्या – यदि किसी को सुख समृद्धि मिली है तो प्रकृति ने उसे ऋण स्वरूप ही दिया है। समय आने पर काल या मृत्यु ब्याज के साथ सब वसूल कर लेता है। संसार में जो भी मणि रत्न हैं वह सब इंद्रधनुष के समान क्षणभंगुर हैं। ऐश्वर्य की ज्वाला विद्युत की चमक के समान ही थोड़े समय तक ही रहती है। वृक्ष के पत्ते ओस रूपी मोती से भर गए हैं। वायु आती है और पत्तों पर पड़े उन मोतियों को हिलाकर गिरा देती है।
(5)
खोलता इधर जन्म लोचन
मूंदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण,
अभी उत्सव औं’ हास हुलास,
अभी अवसाद, अनु उच्छ्वास !
अचिरता देख जगत् की आप
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डालता पातों पर चुपचाप
ओस के आँसू नीलाकाश,
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडुगन !
व्याख्या– सृष्टि में एक तरफ जन्म होता है तो एक तरफ मृत्यु होती है। जन्म के कारण किसी तरफ उत्साह और आनंद के भाव रहते हैं तो मृत्यु के कारण किसी तरफ अवसाद और कष्ट के भाव रहते हैं। संसार के इस प्रकार की नश्वरता को देखकर आकाश नीरस व सुनी श्वास निकलता हुआ प्रतीत होता है। नीला आकाश वृक्ष के पत्तों पर ओस रूपी आंसू डाल देता है। गंभीर भाव रखने वाला समुद्र का मन भी अधीर हो उठता है। आकाश के नक्षत्र और तारामंडल का हृदय संसार की नश्वरता को देखकर कंपित हो जाता है।
(6)
अहे निष्ठुर परिवर्तन !
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन !
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन !
अरे वासुकि सहस्रफन !
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षःस्थल पर !
शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पांतर
अखिल विश्व ही विवर,
वक्र कुण्डल
दिमंडल !
परिवर्तन कविता का भावार्थ- अरे निष्ठुर परिवर्तन तुम्हारा प्रलयंकारी नृत्य संसार का कारुणिक अंत कर देने वाला है। तुम्हारे आँखों के पलक को उठने से उत्थान और गिरने से पतन हो जाता है। अरे हजार फनों वाले वासुकी सर्प तुम्हारे लाखों अप्रत्यक्ष चरणों के चिह्न संसार के घायल हृदय पर पड़े हुए हैं। सैकड़ो फेन निकालते हुए भयंकर फूंकार करते हुए मेघ के आकार के तुम संसार रुपी आकाश को चला रहे हो। मृत्यु तुम्हारे विषैले दंत के समान है। युग परिवर्तन सर्प की केंचुली के समान है। संपूर्ण विश्व ही तुम्हारा बिल है। दिशा मंडल ही तुम्हारे टेढ़ें या गोल कुंडल हैं।