नौका विहार कविता की व्याख्या भावार्थ को पढ़ेंगे। यह पाठ up board class 12 से लिया गया है। Explain of nauka vihar, nauka vihar ki vyakhya आसान से आसान शब्दों में समझेंगे।
नौका विहार कविता की व्याख्या या भावार्थ/ nauka vihar kavita ki vyakhya
नौका विहार कविता सुमित्रानंदन पंत के पल्लव काव्य संग्रह से लिया गया है। चाँदनी रात की प्राकृतिक सुषमा के वातावरण में गंगा में नौका विहार करते हुए जो अलौकिक आनन्द की अनुभूति, सहज सौन्दर्य का बोध, मनोरम कल्पनाओं का अन्तस्थ सूक्ष्म संवेदन कवि को होता है, उसका चित्रात्मक अंकन इस रचना में है। जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र, तारा, आकाश आदि की छवि का अंकन और गंगा के अपूर्व सौन्दर्य का चित्रण करते हुए कवि जीवन-धारा के उद्गम और सतत प्रवाह का वर्णन कर जीवन के चरम सत्य का उद्घाटन करता है।
(1)
शान्त, स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्ज्वल !
अपलक अनंत नीरव भूतल !
सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल,
लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल !
तापस बाला गंगा निर्मल, शशिमुख से दीपित मृदु करतल,
लहरे उर पर कोमल कुन्तल !
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलाम्बर !
साड़ी सी सिकुड़न सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर, सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर !
नौका विहार की व्याख्या – निर्जन पृथ्वी पर फैली हुई शांत, कोमल और उज्ज्वल चांदनी को आकाश एकटक देख रहा है। बालू रूपी बिस्तर पर दूध के समान श्वेत, दुबली-पतली गंगा ग्रीष्म ऋतु में कहीं-कहीं दिखाई देती हुई कष्ट, थकान और स्थिर भाव से लेटी हुई है। तपस्विनी युवती रूपी निर्मल गंगा की कोमल हथेली चंद्रमुख के समान प्रकाशित हो रही है। लहरें उसके ह्रदयस्थल पर कोमल बाल के समान दिखाई दे रहे हैं। उसके गोरे अंगों पर नीले आकाश रूपी चंचल आंचल में तारों का सुंदर समूह लहराते हुए दिख रहा है। सिमटी हुई टेढ़ी और कोमल लहरें चन्द्रमा की कान्ति से सिकुड़ी हुई साड़ी के समान लग रही है।
(2)
चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर।
सिकता की सस्मित सीपी पर मोती की ज्योत्स्ना रही विचर, लो, पालें चढ़ी, उठा लंगर !
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर, तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर, दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर!
कालाकाँकर का राजभवन सोया जल में निश्चिन्त, प्रमन पलकों पर वैभव-स्वप्न सघन !
नौका विहार कविता की व्याख्या – चाँदनी रात्रि का प्रथम प्रहर था, हम शीघ्रता से नांव लेकर चले। बालू में हर्षित सीपी की मोती पर चन्द्रमा की चाँदनी विचरण कर रही थी। पाले चढ़ा ली गई और लंगर उठा लिए गए। हंसिनी के समान सुंदर छोटी नौका कोमल, मंद-मंद कंपन्न करती हुई परी के समान अपने पाले को खोलकर आगे बढ़ रही थी। स्थिर जल के पवित्र दर्पण में नदी के किनारे दोगुने ऊँचे दिखाई दे रहे हैं। नदी के किनारे स्थिर कालाकांकर का राजभवन जल के प्रतिमिंब में निश्चिंत और प्रमुदित भाव से पलकों पर ऐश्वर्य के नए भाव को लेकर सोया हुआ दिखाई दे रहा है।
(3)
नौका से उठती जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर !
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर जल का अंतस्तल;
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किए अविरल
फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल !
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल,
रुपहरे कचों में हो ओझल !
लहरों के घूँघट से झुक झुक दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख
दिखलाता मुग्धा-सा रुक-रुक।
नौका विहार कविता की व्याख्या – नौका से जल की लहरें जब उठती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे जल के प्रतिबिंब में आकाश के दोनों किनारे हिल रहे हों। जल के ह्रदयस्थल को प्रकाशित कर तारों का समूह अपने नेत्रों को फैलाकर कुछ खोजता हुआ दिखाई दे रहा है। जल के लहर रुपी आंचल में चंचल दीप रुपी तारें लुका-छिपी करते हुए दिखाई देते हैं। सामने शुक्र तारे का सौंदर्य सुंदर जल में परी के समान तैरते हुए दिखाई दे रहा है। वह शुक्र तारा काले बादलों के बीच दिखाई दे रहा है फिर थोड़ी देर बाद छिप जा रहा है। लहरों के घूंघट से दशमी का चाँद अपने सौंदर्य को मुख तिरछा करके मुग्धा नायिका के समान दिखाता है।
(4)
जब पहुँची चपला बीच धार,
छिप गया चाँदनी का कगार !
दो बाहों से दूरस्थ तीर धारा का कृश कोमल शरीर आलिंगन करने को अधीर !
अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,
अपलक-नभ नील-नयन विशाल;
माँ के उर पर शिशु-सा समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
उर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता हरने निज विरह शोक ?
छाया की कोकी को विलोक !
नौका विहार का भावार्थ या व्याख्या – जब नौका नदी की धारा के बीच पहुंच गई तब चाँदनी के दोनों किनारे छिप गए। नदी के किनारे रूपी दो बाजू धारा के कमजोर कोमल शरीर का आलिंगन करने व्याकुल हो रहे हैं। अत्यधिक दूर क्षितिज पर वृक्ष की मालाएं टेढ़ी भौंहों के समान दिखाई दे रहा है। ऊपर से आकाश इस मनोरम और विशाल दृश्य को एकटक नीले नेत्रों से देख रहा है। नदी की धारा में बच्चा रूपी द्वीप नदी रूपी मां के हृदय पर लेटा हुआ जल प्रवाह को मंद करते हुए तिरछा कर रहा है। आकाशमार्ग से उड़ता हुआ चकवा अपनी छाया को जब नीचे नदी के जल में देखता है तो भ्रमवश उसे चकवी समझकर उससे मिलने के लिए निरंतर उड़ता रहता है।
(5)
पतवार घुमा, अब प्रतनु भार,
नौका घूमी विपरीत धार।
डाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार
बिखराती जल में तार-हार !
चाँदी के साँपों-सी रलमल नाचती रश्मियाँ जल में चल रेखाओं-सी खिच तरल-सरल !
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु
झिलमिल फैले फूले जल में फेनिल;
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह।
हम बढ़े घाट को सहोत्साह !
नौका विहार की व्याख्या vyakhya – जल का भार हल्का होने के कारण नौका विपरीत धारा में मुड़ी। नौका की डाड़ें अपनी हथेली को फैलाकर मोती रूपी फल और झाग निर्गत कर रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो प्रकृति तारे रूपी मोतियों के हार को तोड़-तोड़ कर जल में बिखेर रही हो। सर्प रूपी चाँदनी की किरणे जल में विचरण करते हुए दिखाई दे रहे हैं। ये किरणें एक सरल और तरल रेखा खींच देने वाली हैं। लहर रुपी लताओं में सैकड़ो चन्द्रमा सैकड़ो नक्षत्र फूले फैले झागयुक्त जल में झिलमिलाते हुए प्रतीत हो रहे हैं। लग्गी से नदी के जल स्तर का पता लगाने के बाद पता चलता है कि नदी का जल स्तर कुछ कम हो गया है। गहराई कम होने के कारण हम बड़े ही उत्साह के साथ घाट की तरफ आगे बढ़ते हैं।
(6)
ज्यों-ज्यों लगती नाव पार,
उर में आलोकित शत विचार।
इस धारा-सी जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम, शाश्वत है गति, शाश्वत संगम !
शाश्वत नभ का नीला विकास, शाश्वत शशि का यह रजत हास, शाश्वत लघु लहरों का विलास !
हे जग-जीवन के कर्णधार ! चिर जन्म-मरण के आरपार, शाश्वत जीवन-नौका-विहार !
मैं भूल गया अस्तित्व ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण करता मुझको अमरत्व दान।
नौका विहार का भावार्थ या व्याख्या – नौका जैसे-जैसे किनारे लगती जाती है वैसे-वैसे हृदय में असंख्य विचार प्रकाशित होने लगते हैं। नदी की धारा के समान ही संसार की स्थिति है। जीवन का उद्गम शाश्वत है तो उसकी गति और उसका मिलन भी शाश्वत ही है। नीले आकाश का विकास शाश्वत है तो चन्द्रमा की चाँदनी हँसी भी शाश्वत है। छोटी-छोटी लहरों की केली क्रीड़ा भी निरंतर या शाश्वत है। सांसारिक जीवन नौका को आगे बढ़ाने वाले हे कर्णधार जन्म और मृत्यु के बीच जीवन रुपी नौका निरंतर अबाध गति से चलती रहती है। जीवन में मुझे शाश्वत सत्य का प्रमाण मिल गया जिस कारण मुझे अमरता की प्राप्ति हो गई।
परिवर्तन कविता की व्याख्या को भी पढ़ सकते हैं। यह कविता भी इसी पाठ से लगी हुई है।