कबीर की साखियां व्याख्या क्लास 9 up board

कबीर की साखियां

कबीर की साखियां व्याख्या क्लास 9 up board / kabir ki sakhiya vyakhya class 9 

सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग। 
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग ।।1।।

व्याख्या – सच्चे गुरु हमसे प्रसन्न होकर रहस्य की एक बात बताई। उनकी बात ऐसी लगी जैसे शरीर रूपी बादल से प्रेम रूपी जल की वर्षा हुई। जिससे मेरा सब अंग भीग गया। अर्थात् मेरे अंदर और बाहर प्रेम का भाव प्रवाहित होने लगा।

राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहिं। 
क्या ले गुर संतोषिए, हाँस रही मन माँहिं।।2।।

व्याख्या / भावार्थ – साधक कहता है कि राम नाम रूपी मंत्र के बदले गुरू को देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। साधक कहता है कि ऐसा क्या मैं अपने गुरु को दे दूं जिससे वह संतुष्ट हो जाएं और मेरा मन यह सोचकर खुश हो जाए कि मैने अपने गुरू को संतुष्ट कर दिया।

ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ। 
जब गोविन्द कृपा करी, तब गुरु मिलिया आइ।3।

भावार्थ / व्याख्या – ज्ञान के प्रकाश से गुरु मिले। उन गुरु को अब खोने से मैं डरता हूं। कबीर जी कहते हैं कि कहीं मुझसे ऐसी कोई गलती न हो जाए जिससे मेरे गुरु मुझसे नाराज हो जाएं। जब परमात्मा की कृपा होती है तभी सच्चे गुरु की प्राप्ति होती है।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवें पड़ंत । 
कहै कबीर गुर ग्यान थें, एक आध उबरंत।।4।।

भावार्थ / व्याख्या – सांसारिक भ्रमवश मनुष्य रूपी पतंगा माया रूपी दीपक में पड़कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है। कबीरदास कहते हैं कि जिनको सच्चे गुरू का ज्ञान मिला रहता है वही इस सांसारिक भ्रम से बच पाते हैं।

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं हम नाहिं। 
प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं ।।5।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीरदास कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार था तब मेरे साथ गुरु नहीं थे। अब मेरे साथ गुरू हैं लेकिन अहंकार नहीं। प्रेम रूपी गली बहुत ही पतली है इसमें दोनों अर्थात् प्रेम और अहंकार एक साथ नहीं सम्मिलित हो सकते हैं।

भगति भजन हरि नावं है, दूजा दुक्ख अपार। 
मनसा बाचा कर्मनाँ, कबीर सुमिरण सार।।6।।

भावार्थ / व्याख्या – भक्ति भजन ही ईश्वर रूपी नाव है। इसके अलावा दूसरा सब कुछ दुख का महासागर है। कबीरदास कहते हैं कि मन, वाणी और कर्म से जो ईश्वर का स्मरण करता है। उसे संसार के वास्तविक ज्ञान की समझ हो जाती है।

कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिसि लागी लाइ। 
हरि सुमिरण हाथू घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ ।।7।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीर कहते हैं कि यदि हृदय में ज्ञान है तो चारो तरफ प्रकाश फैल जाता है। ईश्वर के स्मरण रूपी घड़ा को हाथ में लेकर शीघ्रता से अज्ञानता के वातावरण को समाप्त कर देता है।

अंषड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि। 
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।৪।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीरजी कहते हैं कि ईश्वर के मार्ग को देखते देखते मेरे आंखों में झाई पड़ गई है। राम के नाम को पुकारते पुकारते जीभ में छाला पड़ गया है।

झूठे सुख को सुख कहै, मानत हैं मन मोद। 
जगत चबैना काल का, कछु मुख में कछु गोद ।।9।।

भावार्थ / व्याख्या – जो व्यक्ति झूठे सुख को वास्तविक सुख मानकर मन ही मन प्रसन्नचित होता है। संसार रुपी चबैना कुछ काल के मुख में है तो कुछ गोंद मैं है। अर्थात् काल कुछ लोगों को समाप्त कर चुका है तो कुछ लोगों को समाप्त करने की तैयारी में है।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि। 
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहिं।।10।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीर कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार था तो मेरे साथ ईश्वर नहीं है। मेरे अंदर व्याप्त सभी अज्ञान रूपी अंधकार समाप्त हो गया जब ज्ञान रूपी दीपक को देखा।

कबीर कहा गरबियाँ, ऊँचे देखि अवास। 
काल्हि पयूँ भ्वें लोटणाँ, ऊपरि जामै घास ।।11।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीर कहते हैं कि हे मनुष्य तुम अपने ऊंचे-ऊंचे भवन को देखकर क्यों गर्व करते हो। आने वाले समय में तुम जमीन के अंदर लेट जाओगे और तुम्हारे ऊपर घास जाम जायेगी।

यहुं ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल। 
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठे रंग न भूलि ।।12।।

भावार्थ / व्याख्या – यह संसार सेंबल फूल के समान है। जिस प्रकार से सेंबल का फूल विकसित होता है फिर थोड़े ही क्षण में मुरझाकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देता है। ठीक उसी प्रकार से कुछ दिन के सांसारिक बंधन में पड़कर व्यक्ति अपना वास्तविक रूप भूल जाता है।

इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यू पाली देह। 
राम नाम जाण्या नहीं, अंति पड़ी मुख षेह।।13।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य वर्तमान स्थिति का तुमने लाभ नहीं उठाया। अर्थात् सही समय पर तुमने सही काम नहीं किया। केवल और केवल पशुओं के समान अपने शरीर का पालन पोषण किया। तुमने राम नाम के महत्व को भी नहीं समझा। इस लिए अंत समय में तुम्हारे मुख में मिट्टी ही लगी होगी।

यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि। 
ढबका लागा फूटि गया, कछू न आया हाथि।।14।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीर कहते हैं कि जिस शरीर को साथ लेकर घूम रहे हो, जिस पर तुम घमंड कर रहे हो, वह कच्चे घड़े के समान है। यदि घड़ा कच्चा है तो थोड़ा धक्का लगने पर वह फूट जाएगा। अर्थात् शरीर में अज्ञानता है तो व्यक्ति मार्ग से भटक जाता है।

कबीर कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग। 
बीछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग ।।15।।

भावार्थ / व्याख्या – कबीर कहते हैं कि शरीर की सुंदर बनावट को देखकर तुम क्यों घमंड करते हो। जैसे सर्प के शरीर से अलग हुई केंचुली पुनः उसके शरीर से नहीं जुड़ पाती है। 

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