हिमालय से कविता महादेवी वर्मा के काव्य संग्रह सांध्यगीत से लिया गया है। इस पाठ के explain भावार्थ व व्याख्या को समझेंगे। हिमालय के माध्यम से कवि ने लोगों में वीरता के भाव को भरने का प्रयास किया है। यह पाठ up board class 10 के अन्तर्गत आता है।
हिमालय से कविता की व्याख्या/ himalay se kavita vyakhya bhavarth
हे चिर महान् !
यह स्वर्णरश्मि छू श्वेत भाल,
बरसा जाती रंगीन हास;
सेली बनता है इन्द्रधनुष,
परिमल मल मल जाता बतास !
पर रागहीन तू हिमनिधान !
हिमालय से व्याख्या– हे सदियों से महान हिमालय बर्फ से ढके तुम्हारे श्वेत मस्तक को सूर्य की सुनहरी किरणें जब स्पर्श करती है तो चारो तरफ एक रंगीन हँसी फैल जाती है। हिमालय इंद्रधनुष की पगड़ी पहने हुए है। शीतल सुगंधित वायु से वातावरण सिक्त हो गया है। परंतु हे वैरागी हिमालय तुम्हारे पास बर्फ का खजाना है।
नभ में गर्वित झुकता न शीश
पर अंक लिये है दीन क्षार;
मन गल जाता नत विश्व देख,
तन सह लेता है कुलिश भार !
कितने मृदु कितने कठिन प्राण !
व्याख्या – हे हिमालय आकाश में तुम्हारा मस्तक गर्व से सदैव ऊपर उठा रहता है। परंतु तुम अपने गोंद में दीनहीन मनुष्य रूपी धूल मिट्टी को लिए रहते हो। संसार में व्याप्त दुःख कष्ट को देखकर तुम्हारा मन गल जाता है। तुम्हारा शरीर वज्र से भी कठोर भार को सह लेता है। तुम्हारे मन या प्राण में कोमलता और कठोरता दोनों का संयुक्त रुप से समावेश है।
टूटी है तेरी कब समाधि,
झंझा लौटे शत हार-हार;
बह चला दृगों से किन्तु नीर
सुनकर जलते कण की पुकार !
सुख से विरक्त दुःख में समान !
व्याख्या – हे हिमालय तुम्हारी साधना या तपस्या कब टूटी है अर्थात् कभी नहीं। आंधी तूफान अपने साथ विपत्ति के सैकड़ो हार लेकर आती है। गर्मी से संतप्त लोगों को देखकर हे हिमालय तुम्हारे शिखर रूपी नेत्र से जल रूपी अश्रु प्रवाहित होने लगता है। तुम सुख से बिलकुल अनजान और दुख में समान भाव से जीवन निर्वाह करने वाले हो।
मेरे जीवन का आज मूक,
तेरी छाया से हो मिलाप;
तन तेरी साधकता छू ले,
मन ले करुणा की थाह नाप !
उर में पावस दृग में विहान !
भावार्थ या व्याख्या– हे हिमालय मेरे जीवन की उदासी और शान्ति तुम्हारी छाया से मिलकर एक हो जाए। मेरा शरीर तुम्हारी साधना में लीन हो जाए। मन तुम्हारे करुणा की गहराई में अपने आप को तल्लीन कर दे। हृदय में वर्षा ऋतु है तो नेत्रों में नवीन प्रभात की उम्मीद है। अर्थात् हे हिमालय तुम नई आकांक्षाओं से भरे हुए हो।
हिमालय से काव्य सौंदर्य- छंद- मुक्तक, रस- शांत, भाषा- साहित्यिक खड़ी बोली, गुण- प्रसाद, अलंकार- उपमा, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश