राम लक्ष्मण परशुराम संवाद व्याख्या भावार्थ क्षितिज कक्ष 10
इस पोस्ट में हमलोग राम लक्ष्मण परशुराम संवाद के भावार्थ, व्याख्या और सारांश को पढ़ेंगे। यह पाठ क्षितिज भाग दो chapter 2 से लिया गया है।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का सार या सारांश
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद पाठ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है। राजा जनक यह शर्त रखते है कि जो इस शिव धनुष को तोड़ेगा उससे मैं अपनी पुत्री सीता की शादी कर दूँगा। यह शर्त सुनकर देश विदेश के राजागण धनुष तोड़ने के लिए सभा में उपस्थित होते है। अयोध्या से मुनि वशिष्ठ राम-लक्ष्मण को साथ लेकर सभा में आते हैं। राजा की शर्त के अनुसार श्रीराम धनुष को तोड़ देते हैं। धनुष के टूटते ही परशुराम सभा में अति क्रोध के साथ उपस्थित होते हैं। क्रोध के साथ कहते हैं की जिसने भी इस शिव धनुष को तोड़ा है वह मेरे सामने आ जाए नहीं तो सभा में उपस्थित सभी राजागण को मैं अपने फरसे से काट दूँगा।
परशुराम के अति दुःसाहस को देखकर लक्ष्मणजी उन्हें फटकारते हुए कहते हैं कि हे मुनि श्रेष्ठ आप महान हैं। इस प्रकार आपका क्रोध करना उचित नहीं हैं। आगे लक्ष्मण जी कहते हैं कि आप केवल लम्बी-लम्बी बात करके अपनी महानता सिद्ध करना चाह रहे हैं। लक्ष्मण की इस बात को सुनकर परशुराम उन्हें मारने की धमकी देते हुए वशिष्ठ से कहते हैं कि हे मुनिदेव आपके नम्र स्वभाव के कारण ही इस बालक को छोड़ दे रहा हूँ। इस अबोध बालक को मेरी प्रतिभा के बारे में बताइए।
परशुराम की बात को सुनकर मुनि वशिष्ठ मन ही मन मुसकुराते हुए सोचते हैं कि यह अज्ञानी मुनि क्रोध के कारण बालकों के वास्तविक रूप को नहीं पहचान पा रहे हैं। परशुराम के बढ़े हुए क्रोध को जानकर श्रीराम नेत्रों के इशारे से लक्ष्मण को रोक देते हैं और शीतल वाणी के साथ परशुराम से बात करते हैं।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ व व्याख्या
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ व व्याख्या– हे नाथ शिव जी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। आप आज्ञा दीजिए की आप किस प्रयोजन से यहां आए हैं। क्रोधी मुनि यह सुनकर और अधिक क्रोधित होते हुए बोले सेवक वही होता है जो सेवा का कार्य करता है। शत्रुता जैसे कार्य करके लड़ाई नहीं करता है। हे राम! सुनो, जिस किसी ने भी यह धनुष तोड़ा है वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह शीघ्रातिशीघ्र इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएंगे। मुनि के इस प्रकार के वचन सुनकर लक्ष्मण जी मुसकराए और परशुराम जी का अपमान करने के उद्देश्य से बोले, हे गोसाईं! हमने बचपन में बहुत सी धनुहियां तोड़ डाली किंतु आपने इस प्रकार का क्रोध कभी भी नहीं किया। फिर इस धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है। यह सुनकर भृगुकुल की ध्वजा स्वरूप परशुराम जी ने क्रोधित होकर कहा-
हे राजपूत्र! तुम काल के वश में हो इसलिए संभल कर होश में नहीं बोल रहे हो। समस्त संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुहियां के समान है।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ व व्याख्या– लक्ष्मण जी हंसकर कहते हैं, हे देव! सुनिए हमारी समझ में तो सभी धनुष एक जैसे हैं। इस पुराने धनुष को तोड़ने में क्या हानि और क्या लाभ श्री रामचंद्र जी ने तो इसे नए के भ्रम में देखा था यह तो छूते ही टूट गया। इसमें रघुनाथ जी का कोई दोष नहीं है। हे मुनि! आप बिना कारण ही किस लिए क्रोधित हो रहे हैं। परशुराम जी अपने फरसे की ओर देखकर बोले अरे दुष्ट तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना है। मैं तुझे बालक समझकर नहीं मार रहा हूं। हे मूर्ख! तुम मुझे केवल मुनि ही जानता है। मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यंत क्रोधी हूं। विश्व भर में मैं क्षत्रिय कुल के शत्रु के रूप में विख्यात हूं। मैंने अनेक बार इस धरा को क्षत्रिय राजाओं से हीन किया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्त्रबाहु की भुजाओं को छिन्न-भिन्न करने वाले इस फरसे की ओर देख।
हे राजपुत्र! जन्म देने वाले अपने माता-पिता को सोच। मेरा फरसा इतना कठोर और भयानक है कि यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ व व्याख्या– लक्ष्मण जी हंसकर व्यंग्य वाणी में बोले हे मुनीश्वर! आप तो अपने को महान योद्धा मानते हैं बार-बार मुझे कुल्हाड़ा दिखाकर डरा रहे हो, आप तो फूक से पहाड़ को हिलाना चाहते हो। यहां काशी फल के समान कोई भी कमजोर या दुर्बल व्यक्ति नहीं है, जो आपकी तर्जनी उंगली को देखकर ही मुर्झा जायेगा। मैंने कुछ अभिमान के साथ कहा था। भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो आप जो कुछ भी कह रहे हैं उसे मैं अपने क्रोध को रोककर सुन रहा हूं। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गाय इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती है, क्योंकि इन्हें मारने पर पाप लगता है और इन से हारने पर अपयश होता है अतः आप मारे भी तो आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन करोड़ों वज्रो के समान है। फिर तो धनुष बाण और फरसा आप व्यर्थ में ही धारण करते हैं।
हे महामुनि! इन सब को देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो तो धैर्य धारण करके मुझे क्षमा करना। यह सब सुनकर भृगुवंशी परशुराम जी क्रोध के साथ गंभीर वाणी में बोले।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ व व्याख्या– हे विश्वामित्र सुनो यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है। काल के वश होकर अपने कुल का घातक बन रहा है यह सूर्यवंश रूपी चंद्र का कलंक है। यह बिल्कुल उद्दंड मूर्ख और निडर है। यह अभी क्षणमात्र में ही काल का ग्रास बन जाएगा। मैं पुकार कर कह रहा हूं कि बाद में मेरा दोष नहीं रहेगा। यदि यह मारा जाए तो मुझे किसी प्रकार का दोष न देना यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो इसे हमारे प्रताप बल और क्रोध के बारे में बता कर समझा दो। यह सब सुनकर लक्ष्मण जी ने कहा कि हे मुनि! आपके यश का वर्णन आपके रहते और कौन कर सकता है। आपने अपने ही मुख से अपने कार्यों का वर्णन अनेकों बार कई तरह से किया है। यदि इतना कहने पर भी आपको संतोष नहीं हुआ है तो दोबारा कुछ कह डालिए। अपने क्रोध को रोककर असहनीय दुख को मत सहिए आप वीरता के व्रत को धारण करने वाले हैं। धैर्यवान और शांत स्वभाव के हैं। गाली देना आपको शोभा नहीं देता।
शूरवीर युद्ध भूमि में अपनी शूर वीरता के कार्य करके अपना परिचय देते हैं। कहकर अपने को नहीं बताते। युद्ध भूमि में अपने सामने शत्रु को देखकर कायर ही अपने प्रताप की डींग हांका करते हैं।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ व व्याख्या– आप तो जैसे बार-बार आवाज लगाकर काल को मेरे लिए बुला रहे हैं। लक्ष्मण जी के इस प्रकार के कठोर वचन सुनकर परशुराम जी ने अपने भयानक फरसे को संभालकर अपने हाथ में पकड़ लिया और कहने लगे अब लोग मुझे दोष न देंना । यह कटु वचन बोलने वाला बालक मारने के योग्य है। इसे बालक समझकर मैंने बहुत बचाया किंतु अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है। अब इसे मारने से कोई नहीं बचा सकता। विश्वामित्र जी ने कहा, अपराध क्षमा कीजिए। सज्जन बालकों के दोष और गुण नहीं गिना करते हैं। परशुराम जी बोले कि मुझ दया रहित और क्रोधी के सम्मुख यह गुरु द्रोही उत्तर दे रहा है। इतना होते हुए भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूं। हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे सील और प्रेम के कारण अन्यथा मैं इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता।
विश्वामित्र ने यह सब सुनकर हृदय में ही हंसकर कहे मुनि को सर्वत्र हरा-ही-हरा सूझ रहा है। वह सर्वत्र विजयी होने के कारण राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं किंतु यह लोहे से बनी हुई हांड है। यह कोई एसी हांड़ नहीं है जो मुंह में लेते ही पिघल जाएगी। खेद है मुनि अब भी नासमझ है इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।
राम लक्ष्मण परशुराम संवाद का भावार्थ व व्याख्या– लक्ष्मण जी ने कहा हे मुनि श्रेष्ठ! आपके सील को कौन नहीं जानता। यह तो पूरे संसार में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता के ऋण से तो अच्छी तरह मुक्त हो गए अब गुरु ऋण शेष रहा है जिसकी सोच ने आपके मन को बहुत व्याकुल कर रखा है। वह मानो हमारे ही माथे मड़ा था। बहुत अधिक दिन बीत जाने के कारण हमारे ऊपर ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब आप किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए तो मैं तुरंत ही थैली खोल कर पूरा हिसाब चुका दूं। लक्ष्मण जी के इस प्रकार के कठोर और कड़वे वचन सुनकर परशुराम जी ने कुठार संभाला पूरी सभा हाय हाय करके पुकार उठी। लक्ष्मण जी ने कहा हे प्रभु श्रेष्ठ आप मुझे बार-बार फरसा दिखा रहे हैं। पर हे राजाओं के शत्रु मैं आपको ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूं आपको कभी बलवान वीर योद्धा नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता आप घर में ही बड़े हैं। आप घर में वीर योद्धा हैं। यह सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग कहने लगे, यह अनुचित है! यह अनुचित है! उसी समय श्री रघुनाथ जी ने आंखों के इशारे से लक्ष्मण जी को रोक दिया।
लक्ष्मण जी के उत्तर आहुति के समान थे। जीनसे परशुराम जी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्र जी जल के समान शांत करने वाले मधुर वचन बोले।
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