कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप व्याख्या , भावार्थ, प्रश्न उत्तर
कवितावली का भावार्थ या व्याख्या
किसबी, किसान – कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी ।
पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ॥
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी ।
‘तुलसी’ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आग पेटकी ॥
कवितावली का प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह‘ में संकलित कविता ‘कवितावली ‘ से उद्धृत है। इसके रचयिता ‘गोस्वामी तुलसीदास‘ जी हैं। यह अंश इनकी प्रमुख रचना ‘कवितावली‘ के ‘उत्तर काण्ड‘ से लिया गया है| इस कवित्त में तुलसी जी ने समाज में व्यापक विभिन्न वर्गों की स्थिति का वर्णन किया है। वह कहते हैं कि हर वर्ग पेट की आग के लिए अच्छे-बुरे कार्य करता है।
कवितावली का भावार्थ या व्याख्या – तुलसी दास जी ने अपनी इस काव्य कला के द्वारा मुगल काल के उस समय की सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है जब सभी श्रमजीवी, किसान वर्ग, बनिया वर्ग, भिखारी, भाट, नौकर, चंचल नट वर्ग, गा-बजाकर गुजारा करने वाले लोग तथा इन सभी परिश्रमी वर्गों के साथ चोर और जादूगर आदि भी भूख को मिटाने के लिए अर्थात अपनी जीविका कमाने हेतु ही पढ़ते-लिखते हैं, अपने अन्दर कुशलता का गुण उत्पन्न करते हैं, सभी अपनी जीविका के लिए ही पहाड़ पर चढ़ने के समान कठिन कार्यों को करते हैं। जिस प्रकार ये सब वर्ग पेट की खातिर भटकते रहतेहैं उसी प्रकार शिकारी भी गहरे वन में दिन भर मारे-मारे घूमते रहते हैं
तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी वर्ग अपने-अपने तरीके से धन- – वैभव कमाने में लगे हुए हैं। ये वर्ग न जाने कितने ऊँचे-नीचे कर्म करते हैं, धर्म-अधर्म के कार्य करते हैं अर्थात् पेट के लिए पैसा कमाने के लिए अत्याचार, अन्याय, अनैतिक से भरपूर अनेकों कार्य करते रहते हैं। पेट की भूख को मिटाने के लिए ही ये लोग अपनी सन्तान, अपने बेटे, बेटियों तक को बेचने का नीच कार्य भी कर बैठते हैं।
‘तुलसी’ जी कहते हैं कि यह पेट की आग इतनी भयंकर व तेज है कि इसके सामने समुद्र के अन्दर लगी अग्नि भी इसके सामने तुच्छ पड़ जाती है।तुलसी जी इस भयंकर अग्नि से छुटकारा पाने के लिए एक राम के नाम का सहारा लेने का ही सुझाव देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ घनश्याम वहीं राम ही हैं जो इस पेट की अग्नि का संहार कर सकते हैं। जो मनुष्य राम का नाम सच्ची भक्ति व श्रद्धा के साथ लेता है वह हमेशा ही समाज के इन दुःखों व मोह माया को छोड़ सुखमय जीवन व्यतीत करता है।
(क) भाव पक्ष –
तुलसी जी ने समाज की सबसे बड़ी विडम्बना ‘पेट की आग’ को सभी वर्गों के माध्यम से बड़े ही सरल तरीके
(क) भाव पक्ष –
1- तुलसी जी ने समाज की सबसे बड़ी विडम्बना ‘पेट की आग’ को सभी वर्गों के माध्यम से बड़े ही सरल तरीके से उठाकर, भक्ति बल के द्वारा रामभक्ति करके इससे छुटकारा पाने का सरल सुझाव दिया है।
2- अभिधा शक्ति को सौन्दर्य प्रदान करने के लिए उपयुक्त शब्दों का चयन है।
1- लगभग सभी पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार का सौन्दर्य बिखरा हुआ है।
2- ऊँच-नीच, धरम-अधरम आदि में विरोधाभास अलंकार है।
3- सवैया छन्द का सुन्दर प्रयोग है।
4- तुकबन्दी-चेटकी, अखेट की, बेटकी, पेट की आदि तथा नाद् सौन्दर्य द्वारा गेयता का गुण विद्यमान है।
5- राम की भक्ति-भावना पर बल दिया गया है।
खेती न किसान को, भिखारीको न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों कहाँ जाई, का करी?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम ! रावरें कृपा करी ।
दारिद- दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित दहन देखि तुलसी हहा करी ॥
कवितावली का प्रसंग – पूर्ववत्। इन पंक्तियों में तुलसी जी मुगल काल में समाज की आर्थिक व दयनीय स्थिति का वर्णन करते है। समाज की दशा, हर वर्ग के लोगों में अशान्ति व विडम्बना को ठीक करने के लिए तुलसी जी केवल भक्ति का मार्ग दिखाते हैं।
कवितावली का भावार्थ या व्याख्या – तुलसी जी कहते हैं कि मुगलों के शासन में सभी वर्ग के लोग दुःखी थे। उनके अत्याचारों को सहन कर रहे थे। समाज की आर्थिक दशा बहुत सोचनीय थी । गरीब किसान जी-जान से मेहनत करके भी खेती से पेट नहीं भर सकता था अर्थात किसान को उसकी खेती नहीं (फसल) मिलती थी, लोग इतने गरीब थे कि भिखारी को भी भीख नहीं मिलती थी। ‘तुलसी’ जी कहते हैं कि व्यापारियों को व्यापार नहीं करने दिया जाता था और नौकरों को उनकी मजूरी नहीं मिलती थी । इस दयनीय व जीविका के बिना दुःखी सभी वर्गों के लोग यही बात सोच रहे हैं और वो सभीएक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि इस शोषण व अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए अब वो कहाँ जाए या क्या करें ताकि उनकी जीवन प्रक्रिया चल सकें। वे अपनी आजीविका के लिए अनेक कष्टों को सहन कर रहे हैं। कर उन
तुलसीदास जी राम की भक्ति पर बल देते हुए कहते हैं कि इन सभी आजीविका विहीन लोगों की विपत्ति को दूर केवल एक तरीके द्वारा किया जासकता है। जिसको वेदों व पुराणों में बार-बार कहा गया है। लोगों ने उसकी महिमा को अनेकों बार देखा है। जब सब पर संकट व विपतियों का समय आता है तो प्रभु राम उस समय अपनी कृपा से ही वो संकट दूर कर सकते हैं। हे प्रभु! वो आप ही हो, जिन्होंने निर्दय रावण की बुरी नीतियों वअन्याय को नष्ट किया था। हे राम तुम ही सब दीन-दुखियों के स्वामी हो। अन्याय का नष्ट किया था। है राम तु
हे प्रभु! तुम ही पापों को नष्ट करने वाले हो अर्थात हे राम तुम्हीं को यह दुनिया पाप नाशक मानती है। इसलिए ‘तुलसी’ हमेशा तुम्हारे नाम का ही हाहाकार करता है । तुम्हारे नाम का ही ठहाका लगाता रहता है।
कवितावली का काव्य सौन्दर्य
1- सभी प्रकार की आर्थिक व सामाजिक विपत्तियों को दूर करने का एक मात्र सुझाव राम की भक्ति को ही माना है।
2- उपयुक्त शब्द चयन से अभिधा शक्ति के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है।
(ख) कला पक्ष
1- साहित्यिक ब्रज भाषा की प्रवाहमयता सर्वत्र विद्यमान हैं। सवैया व कवित्त छन्द का प्रयोग किया गया है।
2- लगभग सभी पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार की सौन्दर्य छटा बिखरी हुई है।
3- तत्सम् प्रधान शब्दावली का भावात्मकता व सौन्दर्य के लिए उचित प्रयोग है।
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।
काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।
कवितावली का प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित कविता ‘कवित्त और सवैया’ से उद्धृत है। मूल रूप से यह ‘गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ग्रन्थ ‘कवितावली’ से ली गई है। इन कवित्त पंक्तियों के माध्यम से ‘तुलसी’ जी अपने बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें बताते हुए एक संत के गुणों का व्याख्यान करते हैं
कवितावली का भावार्थ या व्याख्या – ‘तुलसी’ जी अपने बारे में लोगों को सोचते हुए पाते हैं तो कहते हैं कि तुम लोग मुझे चालाक या दगाबाज कहो या फिर कोई साधु, संन्यासी कहो। तुम मुझे राजपूत के समान वीर व साहसी या जुलाहे के समान भी मान सकते हो, तुम लोग मुझे कोई भी मान सकते हो। तुलसी जी कहते हैं कि मैंने किसी की बेटे या बेटी का विवाह या रिश्ता नहीं करवाया है और न ही किसी को अपनी जाति धर्म बदलने को मजबूर किया है। भावार्थ यह है कि एक भक्त को सांसारिक बातों व किसी बात का कोई डर नहीं होता है। वह तो सभी नामों के होते हुए भी सिर्फ अपनी भक्ति में लीन रहता है और संसार के दुःखों को छोड़कर आराम से सोता है।
तुलसी जी कहते हैं कि तुलसी का दूसरा नाम ही राम का गुलाम है जिसकी रुचि जिसमें होती है वह उसी की बातें करता रहता है। अर्थात् जिसको जो विषय रूचिकर लगता है वह उसी के बारे में सोचता रहता है और अन्य के प्रति उसका रूझान नहीं जाता। तुलसी जी कहते हैं हम तो एक रामभक्त हैं जो माँग कर अपने पेट को भरते हैं। अर्थात अन्न आदि माँग कर खा लेते हैं और बिना किसी सांसारिक तनाव व विपत्तियों के मस्ती में रात को सो जाते हैं। इस संसार में मैं किसी से लेनदार नहीं हूँ और न ही मैंने किसी दूसरे का कुछ देना है। अर्थात लेन-देन के झमेले से दूर हूँ।
‘तुलसी’ जी एक सन्त की बेफिकरी, मस्त मौलापन व लेन-देन के चक्कर में न पड़ने वाले गुणों का व्याख्यान करते हैं। इसलिए वो कहते हैं कि उन्हें न किसी से एक रूपया न लेना और न किसी को देने हैं। इसलिए वे मस्ती व चिन्ता रहित जीवन को जी रहे हैं।
कवितावली का काव्य सौन्दर्य
(ख) कला पक्ष
1- विरोधाभास अलंकार प्रयोग हुआ है।
2- तुलसी जी ने सरल, साहित्यिक ब्रज भाषा के सुन्दर रूप का प्रयोग किया है।
3- काव्यगत शैली में तुकबन्द व नाद सौन्दर्य के कारण गेयता विद्यमान है।
4- संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का भी उचित प्रयोग है।
5- ‘लैबोको एकु न दैबको दोऊ’ में मुहावरे का प्रयोग काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करता है।
लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप का भावार्थ या व्याख्या
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत ।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार ।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह‘ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप‘ से उद्धृत है। मुख्य रूप से यह’रामचरित मानस‘ से लिया गया है। इसमें रामभक्त कवि ‘गोस्वामी तुलसीदास’ जी ने संजीवनी लाते समय हनुमान व भरत की वार्तालाप का वर्णन किया है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का सन्दर्भ– यह दोहा छन्द उस समय का है जब हनुमान जी संजीवनी का पता न होने पर सारे पर्वत को उठाकर अयोध्या नगरी के ऊपर से गुजरे। तो भरत ने उन्हें राक्षस समझकर बाण से घायल कर दिया और बाद में उन्हें रामभक्त पाने पर उनका स्वागत किया। इसके बाद जब हनुमान जी वहाँसे जाने लगे तो उनके यह शब्द हैं|
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का भावार्थ या व्याख्या- इन पंक्तियों में श्री हनुमान जी भरत जी को कहते हैं कि आपके प्रभाव को हृदय में धारण करके मैं प्रभु श्रीराम जी की कृपा से तुरन्त ही बड़े वेग के साथ जाऊँगा। यह कहकर हनुमान जी भरत जी से आज्ञा ली और उनके चरणों पर शीश नवाकर चल पड़े।
भरत जी से आज्ञा पाकर जब हनुमान जी संजीवनी लेकर रास्ते में जा रहे हैं तो उनके मन में भरत जी, श्री रामचन्द्र जी और अपने बारे में विचार करते हैं। हनुमान जी भरत जी के भुजाओं के पराक्रम, उनके शील गुण और श्री रामचन्द्र जी के चरणों में उनके (भरत जी के) अटल प्रेम की मन-ही-मन बारम्बार सराहना करते हुए जा रहे हैं।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का काव्य सौन्दर्य
(क) भाव पक्ष
1- तुलसीदास जी ने इस दोहे में भरत व हनुमान जी दोनों के अटूट प्रेम व भक्ति को राम के प्रति दर्शाया है।
2- भरत द्वारा अतिथि सत्कार व हनुमान के दास्य भाव का वर्णन किया है।
3- अभिधा शब्द शक्ति का प्रयोग चुनिंदा शब्दों में सराहनीय है।
(ख) कला पक्ष
1- तुलसी ने ठेठ अवधी भाषा का साहित्यिक रूप सुमधुर व प्रभावपूर्ण ढंग से किया है।
2- पाई – पद, बाहुबल, प्रभु-पद प्रीति, मन-मन महुँ तथा पुनि- पवन में अनुप्रास अलंकार की छवि सौन्दर्यात्मक हैं।
3- पुनि-पुनि में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार विद्यमान है।
4- बाहु, प्रीति आदि शब्दों में तत्सम् शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ॥
अर्ध राति गई कपि नहिं आयउ । राम उठाइ अनुज उर लायऊ॥
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ । बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता । सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ॥
सो अनुराग कहाँ अब भाई । उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ||
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू । पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ||
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग – प्रस्तुत दोहे हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप’ से ली गई है। जो मूल रूप से गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित हिन्दी के बाईबल ‘रामचरित मानस’ से उद्धृत हैं। इन दोहों में तुलसी जी ने राम की उस मनोदशा का वर्णन किया है जब लक्ष्मण मूर्छा पर वे हनुमान जी द्वारा लाई जाने वाली संजीवनी का इन्तजार कर रहे हैं। इस समय राम जी की दशा एक भगवान रूप में नहोकर एक व्याकुल मनुष्य के रूप में हो रही है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का भावार्थ या व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि मूर्च्छित लक्ष्मण को देखकर श्री रामचन्द्र जी का मन चिंतित दशा से युक्त है। लक्ष्मण को कपिदल में मूर्च्छित देखकर श्री रामचन्द्र जी ऐसे वचन कहने लगे जो मनुष्य के कहने योग्य है। भाव यह है कि श्री राम जी तो परमात्मा हैं, वे सब जानते हैं।लक्ष्मण का मूर्च्छित होना उनकी ही लीला मात्र ही था। इस हेतु ऐसे वचन बोले कि जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने भाई को आघात पहुँचने पर कहता हो। श्रीराम जी कहते हैं कि आधी रात तो हो चुकी, हनुमान नहीं आए । यह कहकर श्री रामजी ने लक्ष्मण को उठा कर हृदय से लगा लिया और कहने लगे
हे भाई! तुम्हारा स्वाभाव सदा ही से नम्र रहा है, तुम कभी मुझे दुखित नहीं देख सकते थे। तुमने मेरे ही कारण अर्थात् मेरे लिए ही माता-पिता त्याग दिए, उन्हें छोड़ मेरे साथ आए और वन में कड़ी ठंड, धूप और वायु को है। मूर्च्छित लक्ष्मण को गले से लगाकर श्रीराम जी उसके त्यागों, प्यार व भातृभाव को प्रकट कर रहे हैं।
श्री रामचन्द्र जी अपने व्याकुल मन द्वारा प्रश्न करते हैं। हे भाई! वह तुम्हारा प्यार, प्रेम अब कहाँ गया? तुम मेरे वचनों की व्याकुलता देखकर क्यों नहीं उठ बैठते ? श्रीराम जी लक्ष्मण की आज्ञा पालन की आदत को याद करते हुए इन प्रश्नों को जानना चाहते हैं। भ्रातृ प्रेम में वे कहते हैं कि यदिमैं यह जानता कि वन में भाई बिछुड़ जाएगा तो मैं निश्चय ही पिता जी के वचनों का पालन करता परन्तु तुम्हारा कहा न मानता। भाव यह है कि श्री दशरथ जी ने श्री रामचन्द्र जी को बनवास दिया था न कि लक्ष्मण को। श्री रामचन्द्र जी ही तो लक्ष्मण की विनय सुनकर उन्हें अपने साथ लाये थे। इसलिए वो ऐसा कह रहे हैं।
(क) भाव पक्ष
1- राम जी के व्याकुल व अशांत मन की दशा का मार्मिकता पूर्ण वर्णन तुलसी जी ने इन दोहों में किया है।
2- लक्ष्मण के चारित्रिक गुणों- भक्ति भाव, दास्य भाव, आज्ञा पालन, त्याग भावना, भ्रातृ प्रेम का श्रीराम जी द्वारा व्याख्यान अत्यंत मनोहारी रूप मेंकिया है ।
1- तुलसी द्वारा ठेठ अवधी भाषा का सुमधुर व प्रवाहमयी रूप में प्रयोग हुआ है।
2- दोहा छन्द व गति, लय, तुक द्वारा काव्य में गेयता गुण विद्यमान है।
3- करूण रस का सुन्दर प्रयोग है।
4- बोले बचन, दुखित देखि, बच-बिकलाई आदि में अनुप्रास अलंकार का सुन्दर प्रयोग है।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ॥
जथा पंख बिनु खग अति दीना । मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही । जौं जड़ दैव जिआवै मोही ॥
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई । नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग – पूर्ववत्। इन पंक्तियों में तुलसीदास जी ने कुछ सुन्दर उदाहरणों द्वारा भ्रातृ-प्रेम का अलौकिक वर्णन किया है और भाई के खोने की श्रीरामजी की मनोस्थिति का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का भावार्थ या व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में पुत्र, धन, स्त्री, घर व परिवार के लोग बार-बार मिलते और बिछुड़ते रहते हैं ऐसा हृदय में विचार करहे प्यारे चैतन्य हो जाओ क्योंकि संसार में एक पेट से उत्पन्न भाई भी इस प्रकार हेलमेल से नहीं रहते हैं जिस प्रकार से आपका बर्ताव हमारे प्रतिरहा है। भाव यह है कि तुम्हारे समान भ्रातृ प्रेम अभी तक देखने में नहीं आया। तुलसी जी पक्षी, सर्प व हाथी के उदाहरणों द्वारा राम की मनोदशाका मार्मिक वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार से पक्षी बिना पंखों के अत्यन्त दयनीय स्थिति में आ जाता है और बिना मणि के फणियर सर्पदुःखी होता है और बिना सूंड के हाथी दुखित हो जाता है उसी प्रकार हे भाई तुम्हारे बिना मेरा जीवन है। भाव यह है कि तुम्हारे बिना मेरा जीवन नहींहोना चाहिए यदि कदाचित् विधाता ने मेरे प्राण रहने दिए तो मैं अवश्य ही असहाय हो जाऊँगा।
अगले दोहे में तुलसी दास जी राम के उन विचारों को प्रकट कर रहे हैं जिनमें उन्हें भाई की हानि अन्य सभी हानियों से बड़ी लग रही है। स्त्री केनिमित्त (कारण) अपने प्यारे भाई को खोकर मैं अयोध्या में कौन सा मुँह लेकर जाऊँगा। भाव यह है कि लज्जा के मारे अयोध्या वासियों को अपनामुँह न दिखाया जाएगा चाहे अप कीर्ति संसार में भले ही सह लेता, क्योंकि स्त्री की हानि कोई बड़ी हानि नहीं है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का काव्य सौन्दर्य
(क) भाव पक्ष
2- अभिधा शब्द शक्ति का भावात्मकता की वृद्धि हेतु बहुत सुन्दर प्रयोग है।
(ख) कला पक्ष
1- तुलसी जी ने अवधी भाषा के प्रवाहपूर्ण साहित्यिक रूप का वर्णन किया हैं।
2- तत्सम् प्रधान शब्दावली का प्रचुर मात्रा में प्रयोग है।
3- करिबर-कर, बंधु-बिनु, बारहिबारा आदि में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
4- पक्षी, सर्प व हाथी द्वारा उदाहरण अलंकार द्वारा प्रतीकात्मक भाव स्पष्ट हुआ है।
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा । सहिहि निठुर कठोर उर मोरा ॥
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ।
सौपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी । सब बिधि सुखद परम हित जानी ॥
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई । उठि किन मोहि सिखावहु भाई ||
बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन । स्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई ॥
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग– पूर्ववत्। गोस्वामी जी ने इन पंक्तियों में राम जी के दुःखद हृदय की स्थिति का वर्णन किया है तथा भ्रातृ प्रेम का अनुपम दृश्य प्रस्तुत कियाहै। वे मनुष्य रूप में सभी मोह और भावों को निभाते हुए मर्यादा का रूप धारण किए हुए हैं।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का भावार्थ या व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि रामचन्द्र जी लक्ष्मण मूर्च्छा पर अति व्याकुल हैं और अपनी माताओं के बारे में सोचते हैं कि अब यह मेरा वज्रहृदय इस अपयश और तुम्हारे दुःख को सहन करेगा। हे प्यारे! अपनी माता का जो मैं अकेला पुत्र हूँ, लेकिन उसके प्राणों के आधार तुम थे।
श्री रामचन्द्र जी अयोध्या में माताओं का स्मरण करते हुए कहते हैं कि सुमित्रा माता जी ने तुम्हारा हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था, यह जानकर कि मैंतुम्हारा सब प्रकार से सुखदाई और बड़ा हितैषी हूँ। हे भाई! तुम उठकर मुझे यह समझाते क्यों नहीं कि सुमित्रा जी को क्या उत्तर दूँगा? भाव यह हैकि बिना लक्ष्मण के श्री रामचन्द्र जी अपने आपको अचेतन व लज्जित मान रहे हैं। अन्तिम दोहे में महादेव जी पार्वती से कहते है कि सोच को छुड़ाने वाले प्रभु स्वतः नाना प्रकार सोचकर रहे थे और अपने कमल पत्र के समान तेज व सुन्दर नेत्रों से आँसू बहा रहे थे। हे पार्वती! श्री चन्द्र जी तो पूर्ण हैं अद्वैत है इस सारी लीला से उन दयालु ने तो अपने भक्तों को मनुष्यों की दशा दिखाई। तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम चन्द्र जी राम विलाप में एक साधारण दुःखद व व्याकुल हृदय वाले मनुष्य की छवि प्रस्तुत करते हैं जो अपने भाई के शोक में भावुकता में बह कर साधारण मनुष्य की तरह विलाप कर रहा है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का काव्य सौष्ठव
1- पहले दो दोहों में अभिधा शब्द शक्ति तथा तीसरे में लाक्षणिकता का सुन्दर प्रयोग किया गया है। आखिरी दोहे में श्री रामचन्द्र जी के दोनों रूप- लौकिक व अलौकिक प्रकट हुए हैं।
(ख) कला पक्ष
1- संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के साथ ठेठ अवधी भाषा का साहित्यिक रूप का सुन्दर प्रयोग है।
2- दोहा छन्द शैली काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करता है।
3- अब-अप, सोकु सुत, तात तासु, बहु-बिधि में अनुप्रास अलंकार है।
4- राजिव दल लोचन में रूपक अलंकार प्रयुक्त हुआ है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का सोरठा
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मँह बीर रस ॥
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग– प्रस्तुत सोरठा हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह‘ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप‘ से लिया गया है। यह हिन्दी के बाईबल ‘रामचरित मानस‘ से उद्धृत हैं जिसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी हैं। इसमें श्रीराम की उस मनोदशा का वर्णन किया गया है जब लक्ष्मण मूर्च्छित हो जाते हैं और राम उसके वियोग में विलाप करने लगते हैं।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का भावार्थ या व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि मूर्च्छित लक्ष्मण को देखकर श्रीराम ऐसे विलाप करने लगे जैसे कोई साधारण मनुष्य करता हो। प्रभु श्री रामचंद्र जी का विलाप सुनकर वानरों के झुण्ड व्याकुल हो गये। उनके विलाप सुनकर सभी वानर भी धैर्य खोते जा रहे थे कि तभी उसी समय हुनमान जी संजीवनी बूटी लेकर आ गये, तो ऐसा लगा जैसे करुणा में वीर रस आ गया हो।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का काव्य सौष्ठव
(क) भाव पक्ष
1- तुलसीदास जी ने श्रीरामचंद्र के विलाप के समय हनुमान द्वारा संजीवनी बूटी लाना दर्शाकर वातावरण में करूणा के स्थान पर वीर रस का समावेश करके अपने काव्य-कौशल का परिचय दिया है।
(ख) कला पक्ष
1- संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के साथ साहित्यिक अवधी भाषा का सुंदर प्रयोग किया गया है।
2- सोरठा छंद का प्रयोग काव्य में सौंदर्य की वृद्धि करता है।
3- प्रभु प्रलाप में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है। करूण रस का सुंदर प्रयोग किया गया है।
तुरत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता । हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा । जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा ॥
यह बृतांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। विविध जतन करि ताहि जगावा॥
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग– प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित रामभक्त कवि ‘गोस्वामी तुलसीदास’ जी द्वारा रचित हिन्दी की बाईबल‘रामचरितमानस’ के लंकाकाण्ड से उद्धृत है। इन पंक्तियों में राम के विलाप के बाद जब हनुमान जी संजीवनी लेकर युद्ध क्षेत्र पर पहुँचते हैं तो श्रीराम व हनुमान जी की जो प्रसन्नता पूर्वक भेंट होती है उसका तुलसी जी ने बड़ा ही विनम्र वर्णन किया है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का भावार्थ या व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु श्री राम जी बड़े ही बुद्धिमान हैं और दूसरे द्वारा किए गए उपकार को बहुत ही बड़ा मानने वाले हैं इसलिए उन्होंने संजीवनी लेकर आए हनुमान जी से प्रसन्नतापूर्वक भेंट की । हनुमान जी द्वारा लाई गई औषधि का वैध जी ने तुरन्त उपयोग किया तो लक्ष्मण जी को उसी समय होश आ गया और वह प्रसन्नता पूर्वक उठ खड़े हुए।
जैसे ही लक्ष्मण जी संजीवनी के प्रभाव से उठकर खड़े हुए श्री राम चन्द्र जी ने उनको हृदय से लगाकर भेंट की जिसे देखकर सब रीछ और बानर के योद्धा प्रसन्न हुए। अर्थात् राम के अपने भाई के प्रति इतना प्रेम का अपार सागर देख सभी के हृदय में खुशी की लहर थी। फिर हनुमान जी ने सुसेन वैद्य को उनके उसी स्थान पर पहुँचा दिया जहाँ से हनुमान जी उनको लेकर आए थे।
हनुमान द्वारा लाई गई संजीवनी से जब लक्ष्मण जी चैतन्य रूप में आ गए तो इस बात का व्याख्यान सुनकर रावण को अत्यन्त दुःख हुआ और दुःख के कारण उसने बारम्बार अपना माथा ठोका। इसी दुःख की व्याकुलता के कारण वह घबराता हुआ कुम्भकर्ण के पास गया और अनेक उपाय कर उसने उसे नींद से जगाया। रावण जब अपने अनेक यौद्धाओं को खो बैठा और उनके मूर्च्छित यौद्धाओं के दुबारा चैतन्य हो जाने पर अत्यधिक घबरा गया और अपने भाई कुम्भकर्ण को उठाता है जो छ: महीने तक लगातार सोने वाला दानव था।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का काव्य सौन्दर्य
(क) भाव पक्ष
तुलसीदास जी ने इन पंक्तियों के माध्यम से श्री राम जी के कृतघ्न होने की तथा सेवक द्वारा भी उपकार को मानने की बात को महत्त्व दिया है साथही रावण जी के व्याकुल मन का वर्णन किया है।
(ख) कला पक्ष
1- ठेठ अवधी भाषा के साहित्यिक रूप का तत्सम् प्रधान पदावली में सौन्दर्यपूर्ण प्रयोग है। सोरठा छन्द शैली की महत्ता काव्य को पूर्ण विकसित करती हैं।
2- करुण रस व भयानक रसों की प्रधानता है।
3- प्रभु-परम, तबहिं-ताहि, आदि में अनुप्रास अलंकार का सुन्दर रूप से प्रयोग हैं।
जागा निसिचर देखिअ कैसा । मानहुँ कालु देह धरि वैसा ॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई । काहे तव मुख रहे सुखाई ॥
कथा कही सब तेहिं अभिमानी । जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे ॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अंकपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा । परे समर महि सब रनधीरा
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग– पूर्ववत् ! इन पंक्तियों में ‘तुलसी’ जी ने उस समय की स्थिति का वर्णन किया है जब रावण व्याकुल हृदय से कुम्भकर्ण को उठाते हैं। कुम्भकर्ण के विशालकाय शरीर के वर्णन के साथ युद्ध में मारे गए वीर यौद्धाओं का भी व्याख्यान किया है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि जब रावण अनेक उपायों द्वारा कुम्भकर्ण जी को उठाता है तो कुम्भकर्ण नींद से जागा ऐसा दीख पड़ता था मानो काल ही देह धारण करके आ गया है। अर्थात कुम्भकर्ण का शरीर इतना विशाल व भयभीत कर देने वाला था कि मृत्यु के समान प्रतीत होता था। कुम्भकर्ण द्वारा असमय नींद के खोलने के बाद जब वह रावण के पास पहुँचा तो उसके चिन्तित चेहरे को देखकर वह उनसे पूछने लगा, हे भाई! तुम्हारे मुख क्यों (मुरझा) कुम्हला रहे हैं? अर्थात तुम उदास क्यों हो? कुम्भकर्ण के पूछे जाने पर उस घमंडी ने जिस प्रकार सीता का हरण किया था सो सब हाल कह सुनाया और कहा कि हे भाई! बन्दरों ने बहुत सारे राक्षसों को मार डाला है तथा बड़े-बड़े यौद्धाओं का भी नाश कर दिया है।
रावण अपने सभी योद्धाओं जिनको युद्ध में वीरगति मिल चुकी थी सभी के बारे में बारी-बारी से कुम्भकर्ण को बताता हुआ कहता है कि दुर्मुख, सुररिपु और मनुजाहारी, अतिकाय तथा अकम्पन सरीखे बड़े-बड़े यौद्धा और भी महोदर आदि रणकुशल वीर लड़ाई से जूझ गए। रावण अपने अनेक वीरों की मृत्यु का बदला लेने की भावना को कुम्भकर्ण के सामने प्रस्तुत करता है और उसे युद्ध में जाने के लिए कहता है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का काव्य सौन्दर्य
(क) भाव पक्ष
तुलसी जी ने निशाचर कुम्भकर्ण की तुलना मृत्यु से करके उसको महत्ता प्रदान की है। रामायण के युद्ध में वीर गति प्राप्त कुछ महान् योद्धाओं केके पराक्रम का वर्णन किया गया है।
(ख) कला पक्ष
1- तुलसी ने साहित्यिक ठेठ अवधी का प्रवाहमयी रूप प्रदान किया है। इन्होंने सोरठा छन्द शैली का सौन्दर्यपूर्ण वर्णन है।
2- ‘मानहुँ कालु देह’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है ।
3- कथा-कही, अतिकाय, अकंपन आदि शब्दों में अनेक बार अनुप्रास अलंकार का सुन्दर प्रयोग है।
4- महा-महा में पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार है।
5- वीर, रौद्र व करूण रसों का समन्वय तुलसी के समन्वय की भावना को उजागर करती है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का दोहा
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का प्रसंग – प्रस्तुत ‘दोहा’ हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित ‘गोस्वामी तुलसीदास’ जी द्वारा कृत कविता ‘दोहा’ से उद्धृत है। मूल रूप से यह ‘रामचरितमानस’ के ‘लंकाकाण्ड’ से लिया गया है। इस दोहे में उस समय का वर्णन है जब युद्ध के परिणामों से घबराकर रावण अपने भाई कुम्भकर्ण को उठाता है तथा युद्ध का सारा वृत्तांत उसे सुनाता है। तब कुम्भकर्ण अपने भाई रावण के कृत्य पर खेद प्रकट करते हुए कहता है कि-
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप व्याख्या– तुलसीदास जी कहते हैं कि जब कुम्भकर्ण को रावण के लज्जापूर्वक कार्य के बारे में उससे सुना तो कुम्भकर्ण जी अपने भाई को समझाते हुए कहते हैं- रे मूर्ख । जगतकारिणी सीता जी का हरण करके अब भलाई चाहता है। अर्थात जब वह उसे युद्ध में जाने के लिए और अधर्म का साथ देने के लिए कहता है तो वह युद्ध के लिए तैयार हो जाता है पर रावण को कहता है कि अब जो वह कल्याण चाहता है वह इस लज्जापूर्ण कार्य के बाद संभव नहीं है।
लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप का काव्य सौन्दर्य
(क) भाव पक्ष
1- काल रूप के समान होने पर भी कुम्भकर्ण से सीता हरण के कार्य पर रावण को खेद प्रकट करता है और उसे रावण के कल्याण की कोई आशा नहीं है।
2- भाव सौन्दर्य के लिए अभिधा शब्द शक्ति के द्वारा चुनिंदा शब्दों का प्रयोग किया गया है।
(ख) कला पक्ष
1- अवधी भाषा का साहित्यिक प्रवाहमयी प्रयोग काव्य सौष्ठव को बढ़ाता है।
2- नाद सौन्दर्य के कारण गेयता गुण आया है।
3- संस्कृत प्रधान शब्दावली का भाव और प्रवाह के लिए मनोहारी प्रयोग हुआ है। क्रोध के कारण रौद्र व वीभत्स रस (घृणा से) का प्रयोग है।
कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप के प्रश्न उत्तर
1- कवितावली के उद्धृत छंदों के आधार पर स्पष्ट करें कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है।
उत्तर– कवितावली के प्रस्तुत कवित्त में तुलसी जी ने अपने युग की आर्थिक विषमता व सभी वर्गों पर होने वाले आर्थिक अत्याचार का वर्णन किया है। उन्होंने श्रम जीवी, किसान, बनिया, भिखारी, दास, नौकर, जादूगर, शिकारी आदि सभी की आर्थिक रूप से दयनीय स्थिति का वर्णन किया है।ये सभी वर्ग अपनी आजीविका कमाने के लिए चिंतित थे तथा इन सब का मुगल काल में मुगलों द्वारा भरपूर शोषण हो रहा था। इसलिए हम कह सकते हैं कि उन्हें अपने समाज की आर्थिक विषमता की अच्छी जानकारी थी।
2. पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है- तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।
3. तुलसी ने यह कहने की जरूरत क्यों समझी ?
– धूत कही, अवधूत कहौ, राजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ / काहू की बेटा से बेटी न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
इस सवैया में काहू के बेटा सों बेटी न ब्याहब कहते तो सामाजिक अर्थ में क्या परिवर्तन आता?
उत्तर– इन पंक्तियों में तुलसी जी ने ऐसा एक सच्चे संन्यासी, एक संत का परिचय देते हुए कहा है कि एक भक्त या संत को सांसारिक या किसी भी बात का कोई डर नहीं होता है। उसे सांसारिक लोग कुछ भी कहें पर वह तो सिर्फ ईश्वर भक्ति में लीन रहता है। इसलिए तुलसी ने अपने आपको इन सांसारिक मोह से दूर करते हुए ऐसा कहा है।
प्रथम पंक्तियों में तुलसी जी अपने बेटे का किसी की बेटी से विवाह करने का विचार प्रस्तुत किया जो कि एक सरल कार्य है। लेकिन आधुनिक सन्दर्भ में बेटी के विवाह की बात आए तो मानव हृदय में हीनता व असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। लड़के की शादी में गर्व व लेने की भावनाआती है पर लड़की की शादी में भय व दहेज देने की भावना व्याप्त होती है। आधुनिक समाज में जो लड़के व लड़की में अन्तर पाया जाता हैउसकी तरफ ये दोनों पंक्तियाँ संकेत करती हैं।
4. धूत कहौ.……वाले छंद में ऊपर से सरल व निरीह दिखलाई पड़ने वाले तुलसी की भीतरी असलियत एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है। इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर– इस कवित्त की तीसरी पंक्ति में तुलसी जी ने स्पष्ट कर दिया है कि उनका दूसरा नाम ‘राम का दास’ है। वह राम की भक्ति को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानते हैं। उनकी रुचि राम की भक्ति में ही है। इसलिए ही उन्हें कोई चाहे किसी भी नाम से पुकारे या फिर सांसारिक मोह में फंसाना चाहे वह उसमें न फंस कर राम भक्ति को ही श्रेष्ठ मानते हैं। साधु भक्त के दास्य भाव हृदय से राम भक्ति करके वो अपनी सच्ची भक्ति का परिचय देते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि वो एक स्वाभिमानी, सच्चे भक्त हैं।
5. व्याख्या करें
(क) मम हित लागि तजेहु पितु माता सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू । पितु बचन मनतेउँ नहिं ओहू ।।
(ख) जथा पंख बिनु खग अति दीना । मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही । जौं जड़ दैव जिआवै मोही ||
(ग) माँगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो को एकु न दैबो को दोऊ ।।
(घ) ऊँचे नीचे करम, धरम-अधरम करि, पेट को ही पचत, बेचत बेटा-बेटकी
6. भ्रातृशोक में हुई राम की दशा को कवि ने प्रभु की नर लीला की अपेक्षा सच्ची मानवीय अनुभूति के रूप मे रचा है। क्या आप इस से सहमत हैं? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए ।
उत्तर– तुलसीदास जी ने ‘रामचरित मानस’ के द्वारा राम जी के अवतार व आदर्श मर्यादापूर्ण मानव रूप का वर्णन किया है। लक्ष्मण-मूर्च्छा पर राम का विलाप एक भावात्मक मार्मिक दृश्य का प्रस्तुतिकरण तुलसी जी ने किया है। राम की व्याकुल स्थिति, उनका भ्रातृ प्रेम, लक्ष्मण की विभिन्न स्मृतियों को प्रकट करना, पत्नी से अधिक महत्त्व देना, ये सब बातें सच्चे भाई की मानवीय अनुभूति को प्रदर्शित करने वाली है। इस स्थिति में श्रीराम जी नर लीला करने वाले प्रभु न होकर भ्रातृ स्नेह में विलाप करते एक दुखी मानव ही प्रतीत होते हैं।
7. शोकग्रस्त माहौल में हनुमान के अवतरण को करुण रस के बीच वीर रस का आविर्भाव क्यों कहा गया है?
उत्तर – प्रस्तुत कविता में राम विलाप के द्वारा प्रमुख रूप से करुण रस की प्रस्तुति है । परन्तु लक्ष्मण मूर्छा को दूर करने के लिए संजीवनी को लाने वाले हनुमान जी के वीरत्व का वर्णन भी इस काव्य में किया गया है। कविता के प्रारम्भिक दोहे में ही हनुमान द्वारा राम व भरत को वीरता का गुणगान है। संजीवनी को लाने में विभिन्न विपत्तियों को सहन करते हुए हनुमान जी की वीरता पूर्ण सफलता तथा उसकी वीरता का व्याख्यान सुनकर रावण का क्रोधित होना सभी उसके वीर रस को दर्शाने वाले चिह्न हैं। संजीवनी लाने के उपरान्त राम का हनुमान से सहर्ष मिलना व लक्ष्मण के होश में आने के बाद उससे सहर्ष गले लगाना सचमुच करूण रस के बाद वीरता सौन्दर्य को प्रदर्शित करने वाले गुण हैं।
8- “जैहऊँ अवध कवन मुहुँ लाई । नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई ।
भाई के शोक में डूबे राम के इस प्रलाप – वचन में स्त्री के प्रति कैसा सामाजिक दृष्टिकोण संभावित है?
उत्तर– तुलसी जी ने ‘रामचरितमानस’ में रामजी के मर्यादा रूप का वर्णन किया है। उनकी अनुभूति एक आदर्श मानव की है। श्रीराम जी जहाँ एक ओर आदर्श पति है वहीं दूसरी ओर एक आदर्श भाई भी है। प्रस्तुत दोहे में तुलसी जी ने ‘राम जी’ के द्वारा भातृ प्रेम की स्त्री प्रेम से अधिक महत्ता प्रकट की है। श्रीराम जी समाज भय व लोक निंदा के भय से कहते हैं कि नारी को (पत्नी) खो देना भाई को खोने से अच्छा है क्योंकि समाज में नारियाँ तो ओर भी मिल सकती हैं, भाई नहीं। इस प्रकार तुलसी जी ने नारी का समाज में तुच्छ स्थान दर्शाया है नारी के प्रति हीन भाव का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप पाठ के आसपास
1. कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में पत्नी (इंदुमती) के मृत्यु-शोक पर अज तथा निराला की सरोज-स्मृति में पुत्री (सरोज ) के मृत्यु-शोक पर पिता के करुण उद्गार निकले हैं। उनसे भ्रातृशोक में डूबे राम के इस विलाप की तुलना करें।
उत्तर– कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में पत्नी इन्दुमति के मृत्यु-शोक पर पति का अज विलाप है तथा निराला की ‘सरोज-स्मृति’ में पुत्री सरोज के मृत्यु-शोक पर पिता का करुण विलाप है। इसी प्रकार राम का भ्रातृशोक (लक्ष्मण मूर्च्छा का विलाप) भी करुण रस की सृष्टि करता हैं। अज का अपनी पत्नी से तथा निराला जी का अपनी पुत्री से जुदा होने के बाद का करुण उद्गार है लेकिन श्रीराम का मृत्यु के समीप पहुँचे अनुज के प्रति विलाप हृदय को उद्वेलित करने का उद्गार है।
2. पेट के हि पचत बेटा-बेटकी तुलसी के युग का ही नहीं आज के युग का भी सत्य है। भूखमरी में किसानों की आत्महत्या और संतानों (खासकर बेटियों) को भी बेच डालने की हृदय विदारक घटनाएँ हमारे देश में घटती रही हैं। वर्तमान परिस्थितिओं और तुलसी के तुलना युग की करें।
उत्तर– पेट की भूख के कारण किसानों की आत्महत्या और संतानों को भी बेच डालने की हृदय विदारक घटनाएँ हमारे देश में भी घटती हैं।तुलसीदास जी ने कवित्त ‘किसबी किसान…” में इसी प्रकार की तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन किया है। पेट की भूख से बेचैन होकर व्यक्ति अमानवीय कृत्य कर बैठता है। चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार- सभी पेट की भूख के ही कारण हो सकते हैं। यहाँ तक कि मनुष्य भूख से तंग आकरअपनी बेटी की शादी पैसे लेकर अधेड़ उम्र के व्यक्ति से भी करवाने को तैयार हो जाता है। सूनामी की घटना तत्कालीन प्राकृतिक आपदा है।कितने सूनामी पीड़ितों ने पेट की भूख के कारण ही अपनी संतानों को बेच दिया। तुलसीदास जी के युग की परिस्थितियों में व्यक्ति दीन-हीन होने के कारण विवश था। आज भी व्यक्ति प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारण से भुखमरी के कारण आत्महत्या अथवा संतान को बेचने जैसे अमानवीय कृत्य कर सकता है।
3- तुलसी के युग की बेकारी के क्या कारण हो सकते हैं? आज की बेकारी की समस्या के कारणों के साथ उसे मिलाकर कक्षा में परिचर्चा करें।
उत्तर– विद्यार्थी अध्यापक की सहायता लेकर स्वयं करें।
4. राम कौशल्या के पुत्र थे और लक्ष्मण सुमित्रा के । इस प्रकार वे परस्पर सहोदर (एक ही माँ के पेट से जन्मे ) नहीं थे। फिर, राम ने उन्हें लक्ष्यकर ऐसा क्यों कहा- “ मिलइ न जगत सहोदर भ्राता “? इस पर विचार करें।
उत्तर– राम कौशल्या के पुत्र थे और लक्ष्मण सुमित्रा के पुत्र थे किन्तु फिर भी लक्ष्मण ने राम के लिए सहोदर (एक ही माँ के पेट से जन्मे भाई) जैसा व्यवहार किया। राम के वनवास गमन पर राम-सीता की सेवा के लिए लक्ष्मण स्वयं अपनी पत्नी उर्मिला को विरह में छोड़कर वनवास में गया। राम की प्रत्येक विपत्ति में उनकी सहायता की। अपने भाई के स्नेह, सेवा, त्याग तपस्या को देखकर ही राम ने कहा- “मिलइ न जगत सहोदर भाई” ।
5. यहाँ कवि तुलसी के दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, सवैया- ये पाँच छंद प्रयुक्त हैं। इसी प्रकार तुलसी साहित्य में और छंद तथा काव्य-रूप आए हैं। ऐसे छंदों व काव्य – रूपों की सूची बनाएँ।
उत्तर— तुलसीदास जी ने 36 रचनाएँ लिखी हैं जिनमें बारह रचनाएँ प्रमाणित हैं। इन रचनाओं में प्रयुक्त काव्य रूप इस प्रकार हैं
प्रबन्ध काव्य– रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वती मंगल, जानकी मंगल ।
गीति काव्य – गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनयपत्रिका।
तुलसीदास जी ने अपने काव्य में दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, सोरठा के अतिरिक्त छप्पर, वरवै आदि छन्दों का प्रयोग किया है।
इन्हें भी जानें
कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप चौपाई
कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप दोहा
दोहा अर्धसम मात्रिक छंद है। इसके सम चरणों (दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं तथा विषम चरणों (पहले और तीसरे) में 13-13 मात्राएँ होती हैं। इनके साथ अंत लघु (1) वर्ण होता है।
कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप सोरठा
सोरठे को दोहे का उलटा कहा जा सकता है। इसके सम चरणों (दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं तथा विषम चरणों (पहले औरतीसरे में) 11-11 मात्राएँ होती हैं । परंतु दोहे के विपरीत इसके सम चरणों (दूसरे और चौथे चरण) में अंत्यानुप्रास या तुक नहीं रहती, विषम चरणों (पहले और तीसरे) में तुक होती है ।
कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप कवित्त
यह मात्रिक छन्द है। इसे मनहरण भी कहते हैं। कवित्त के प्रत्येक चरण में 31-31 वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के 16 वे और फिर 15 वें वर्ण पर यति रहती है। प्रत्येक चरण का अंतिम वर्ण गुरु होता है।
कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप सवैया
चूँकि सवैया वार्णिक छंद है, इसलिए सवैया छंद के कई भेद हैं। ये भेद गणों के संयोजन के आधार पर बनते हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध मत्तगयंद सवैया हैं इसे मालती सवैया भी कहते हैं। सवैया के प्रत्येक चरण में 23-23 वर्ण होते हैं जो 7 भगण + 2 गुरू (33) के क्रम के होते हैं। यहाँ प्रस्तुत तुलसी का सवैया कई भेदों को मिलाकर बनता है।