सुभाषितरत्नानि का अनुवाद / subhashitratnani anuvad class 12 up board 

प्रस्तुत पाठ जिसका नाम subhashitratnani है, इसके अनुवाद को समझेंगे। यह पाठ up board class 12 के अंतर्गत आता है। बिलकुल सरल व आसान शब्दों में इसका अनुवाद करेंगे।

सुभाषितरत्नानि का अनुवाद / subhashitratnani anuvad class 12 up board 

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती। 
तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।1।

सुभाषितरत्नानि अनुवाद- भाषाओं में मुख्य, मधुर और अलौकिक देववाणी संस्कृत है। उससे भी मधुर उसका काव्य है। उससे भी मधुर उसकी सुंदर वाणी है।

सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम् । 
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।2।

सुभाषितरत्नानि अनुवाद– सुख चाहने वाले को विद्या कहां, विद्या चाहने वाले को सुख कहां। सच्चे अर्थों में जो सुख चाहता है उसे विद्या का त्याग करना पड़ता है, सच्चे अर्थों में जो विद्या चाहता है उसे सुख का त्याग करना पड़ता है।

जल-बिन्दु निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः । 
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।3।

सुभाषितरत्नानि अनुवाद– जल की एक-एक बूंद गिरने से घड़ा पूरी तरह से भर जाता है। वही स्थिति सभी विद्या, धर्म और धन की होती है। 

काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।4।

अनुवाद– बुद्धिमान का समय काव्यशास्त्र और ग्रंथों के अध्ययन में व्यतीत होता है। मूर्खों का समय गलत कार्य, निद्रा और लड़ाई-झगड़े में व्यतीत होता है।

न चौरहार्यं न च राजहार्यं 
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि । 
व्यये कृते वर्द्धत एव नित्यं 
विद्याधनं सर्वधनंप्रधानम्।5।

अनुवाद– न चोर चुरा सकता है, न राजा हरण कर सकता है, न भाई बांट सकता है, न ही यह भार स्वरूप है। प्रतिदिन खर्च करने से यह बढ़ता है, विद्या सभी प्रकार के धनों में प्रमुख धन है।

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। 
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।6।

अनुवाद– पीठ पीछे जो कार्य को बिगाड़ा है सामने प्रिया बोलता है इस प्रकार के मित्र को उसी  प्रकार से त्याग देना चाहिए जिस प्रकार विष से भरे हुए घड़े के मुख पर दूध होने पर भी उसे त्याग दिया जाता है।

उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च। 
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।7।

अनुवाद– उदित होता हुआ सूर्य लाल होता है और अस्त होता हुआ सूर्य भी लाल ही होता है। ठीक उसी प्रकार से महान व्यक्ति संपत्ति में और विपत्ति में सदैव एक समान रहते हैं। अर्थात विपरीत परिस्थितियों से कभी नहीं घबराते हैं।

विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय। 
खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।8।

अनुवाद– दुष्ट की विद्या विवाद के लिए, धन अहंकार के लिए, और शक्ति दूसरे को परेशान करने के लिए होती है। जबकि सज्जन की विद्या ज्ञान के लिए, धन दान के लिए और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् । 
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।9।

अनुवाद– व्यक्ति को बिना विचार किए एकाएक कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। अज्ञानता परम विपत्तियों का स्थान है। विचारशील मनुष्यों को गुण की लोभी संपत्तियां स्वयं ही चुन लेती है।

वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि । 
लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति।10।

अनुवाद– उच्च विचार वाला व्यक्ति वज्र से कठोर होता है तो पुष्प से भी कोमल होता है। उसके इस अलौकिक हृदय को जानने में सभी लोग समर्थ नहीं हो पाते हैं।

प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रो। 
यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम् । 
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्। 
एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ।11।

अनुवाद– जो पुत्र अपने उत्तम चरित्र से पिता को प्रसन्न करता है, जो स्त्री सदैव अपने पति के हित की इच्छा रखती है और जो मित्र सुख और दुख में समान आचरण करता है। संसार में ये तीनों पुण्य कर्म के प्रभाव के कारण ही किसी को प्राप्त होते हैं।

कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मीं 
कीर्ति सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।
शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां 
धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः।12।

अनुवाद– धीर पुरुषों ने सुंदर वाणी को एक ऐसी गाय कहा है जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करती है। निर्धनता को दूर करती है। यश को बढ़ाती है। पाप को नष्ट करती है। वह शुद्ध शांत और समस्त मंगलो की माता है।

व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः 
न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतयः संश्रयन्ते ।। 
विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं 
द्रवति च हिमरश्मावुद्गते चन्द्रकान्तः।13।

अनुवाद– पदार्थों के मध्य या व्यक्तियों के मध्य कोई न कोई ऐसा कारण अवश्य होता है जो उन्हें आपस में एक-दूसरे से जोड़े रखता है। निश्चित रूप से बाह्य सौंदर्य पर वास्तविक प्रेम आश्रित नहीं होता है। क्योंकि सूर्य के उदित होने पर ही कमल विकसित होता है। चंद्रमा की किरणें आने पर ही चंद्रकांत मणि पिघलती है।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु 
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा 
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।14।

अनुवाद– नीति निपुण लोग निंदा करें अथवा प्रशंसा करें। लक्ष्मी आए अथवा अपनी इच्छा अनुसार चली जाए। मृत्यु आज ही हो जाए अथवा कई युगों के बाद हो। धीर पुरुष न्याय के मार्ग से अपने पैर को कभी भी विचलित नहीं होने देते हैं।

ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः। 
सा योनिः सर्ववैराणां सा हि लोकस्य निर्ऋतिः।15।

अनुवाद– ऋषियों ने उन्मत्त और अहंकारी वाणी को राक्षसी कहा है। क्योंकि यह वाणी सभी प्रकार के शत्रुता को जन्म देने वाली होती है और संसार से यह सत्य का नाश कर देती है।

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