सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या कक्षा -10 up board

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या कक्षा -10 up board

सूरदास के पद संख्या-1 का भावार्थ व व्याख्या 

चरन-कमल बंदौं हरि राइ ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे को सब कछु दरसाइ ।
बहिरौ सुने, गूँग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तिहिं पाइ।1।

सूरदास के पद का शब्दार्थ: चरन-कमल- कमलवत चरण, हरि- ईश्वर(कृष्ण), राइ- राजा, पंगु- लंगड़ा, गिरि- पर्वत, दरसाइ- दिखने लगना, रंक- भिखारी, छत्र- मुकुट, पाइ- पैर

सूरदास के पद का संदर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी के ‘पद’ नामक पाठ से लिया गया है जिसके कवि ‘सूरदास’ हैं।

सूरदास के पद का प्रसंग-
प्रस्तुत पद में सूरदास ने  श्रीकृष्ण को अपना आराध्य बताया है और उन्हीं की बंदना करते हुए कहते हैं कि-

सूरदास के पद की व्याख्या व भावार्थ- मैं राजा कृष्ण के  कमलवत चरणों की बंदना करता हूँ, जिनकी कृपा से लंगड़ा व्यक्ति पर्वत को लाँघ जाता है, अंधा व्यक्ति सब कुछ देखने लगता है, बहरा सुनने लगता है, गूँगा बोलने लगता है और भिखारी के सिर पर मुकुट सुशोभित होने लगता हैं। अर्थात वह ग़रीब से अमीर हो जाता है और अंत में सूरदास जी कहते हैं कि मैं उस करुणामयी स्वामी श्री कृष्ण के चरणों की बार-बार बंदना करता हूँ।

सूरदास के पद का काव्यगत सौंदर्य- (1)अलंकार- रूपक (२)भाषा- ब्रजभाषा (३)शैली- गेय पद मुक्तक शैली (४)रस- भक्ति (५)आराध्य देव की उत्कृष्टता स्थापित की गयी है।


सूरदास के पद संख्या-2 का भावार्थ व व्याख्या 

अबिगत-गति कछु कहत न आवै ।
ज्यौं गूँगे मीठे फल कौ रस, अंतरगत ही भावै।
परंम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौ अगम अगोचर, सो जानै जो पावै
रूप-रेख-गुन-जाति- जुगति-बिनु, निरालंब कित धावे।
सब विधि अगम विचारहि तातै सूर सगुन-पद गावै।2।

सूरदास के पद का शब्दार्थ: अविगत-गति- निराकार ब्रह्म की स्थिति, रस- आनंद, अंतरगत- अंतर्मन, निरंतर- विद्यमान, अमित- असीमित, तोष- संतोष, उपजावै- उत्पन्न करना, अगम- जहाँ तक पहुँचा न जा सके, अगोचर- जिसको देखा न जा सके, जुगति- युक्ति, निरालंब- बिना आधार के, धावै- दौड़ना,

सूरदास के पद का प्रसंग इस पद में सूरदास जी निराकार ब्रह्म के स्वरूप के विषय में बताते हुए कहते हैं कि-

सूरदास के पद की व्याख्या- निराकार ब्रह्म के स्वरूप के विषय में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। जिस प्रकार से गूँगा व्यक्ति मीठे फल को खाकर उसके आनंद को अंतर्मन में ही अनुभव कर पाता है उसे वह किसी को बता नहीं पाता। उसी प्रकार से निराकार परब्रह्म का स्वाद सभी में विद्यमान् है। जिसने उसको समझ लिया उसके अंदर असीमित संतोष उत्पन्न हो जाता है। वह निराकार परब्रह्म मन और वाणी से अगम और अगोचर है उसको वही प्राप्त कर सकता है जिसने उसको जाना है। उस निराकार ब्रह्म का न तो कोई निश्चित रूप है, न तो कोई उसका स्वरूप है, न ही उसके अंदर कोई गुण है, न ही उसकी कोई जाति है वह बिना आधार का होते हुए भी इधर-उधर दौड़ा करता है। और अंत में सूरदास जी सब भाँति से सोच-विचार करके श्रीकृष्ण के सगुण पद को गान करना स्वीकार करते हैं।

सूरदास के पद का काव्यगत सौंदर्य- (1)अलंकार- अनुप्रास (२)भाषा- ब्रजभाषा (३)शैली- गेय पद मुक्तक शैली (४)रस- भक्ति व शांत (५)सूरदास जी निराकार ब्रह्म को अस्वीकार करते हुए साकार ब्रह्म को स्वीकार करते हैं।


सूरदास के पद संख्या-3 का भावार्थ व व्याख्या 

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिम्ब पकरिबै धावत ।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौ, करि सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ।
कनक- भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति
बाल-दसा सुख निरखि जसोदा पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौ दूध पियावति ।3।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- किलकत- खिलखिलाकर हँसना, घुटुरुवनि- घुटने के बल, मनिमय- मणियों से युक्त, कनक- स्वर्ण, निरखि- देखकर, राजत- सुशोभित होना, पुनि-पुनि- बार-बार, अवगाहत- आकर्षित करना, कर-पग- हाथ और पैर, वसुधा- पृथ्वी,

सूरदास के पद का प्रसंग– प्रस्तुत पद में सूरदास कृष्ण के बाल सौंदर्य का चित्रण करते हुए कहते हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ- श्री कृष्ण घुटने के बल खिलखिलाकर हँसते हुए आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो मोतियों से युक्त नंद के स्वर्णरूपी आंगन में परछाईं को पकड़ने के लिए दौड़ रहे हों। वह श्रीकृष्ण कभी अपनी ही परछाई को देखकर उसे वह हाथ से पकड़ना चाहते हैं। जब वह खिलखिलाकर हँसते हैं तो उनके आगे के दोनों दाँत अत्यंत ही सुशोभित होने लगते हैं। उनका यह सौंदर्य लोगों को बार-बार अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेता है। स्वर्ण रूपी पृथ्वी पर श्रीकृष्ण के हाथ और पैर की छाया एक अलग ही प्रकार के सौंदर्य को व्यक्त कर रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो पृथ्वी ने उनके प्रत्येक पैर और हाथ पर एक-एक मोती को लगा दिया हो और उनके बैठने के लिए कमल का आसान सजा दिया हो। श्री कृष्ण के इस बाल सौंदर्य को देख करके माता यशोदा बार-बार नंद बाबा को बुलाती है और वह श्रीकृष्ण को आँचल में ढँक करके उन्हें दुग्धपान कराने लगती है।


सूरदास के पद संख्या-4 का भावार्थ व व्याख्या 

मैं अपनी सब गाइ चरैहौं ।
प्राप्त होत बल के संग जैहौ, तेरे कहैं न रैहौ।
ग्वाल बाल गाइनि के भीतर नैकहुँ डर नहिं लागत ।
आज न सोवौं नंद- दुहाई, रैनि रहौंगो जागत
और ग्वाल सब गाइ चरैहैं, में घर बैठो रैहौ?
सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं दैहौं।4।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- गाइ- गाय, बल- बलराम, नैकहूँ- थोड़ा सा भी,

सूरदास के पद का प्रसंग- प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण माँ यशोदा से गाय चराने जाने के के लिए ज़िद्द करते हुए कहते हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- श्री कृष्ण माँ यशोदा से अपनी गायों को चराने जाने के लिए ज़िद्द करते हुए कहते हैं कि हे माँ मैं अपनी सभी गायों को चराने के लिए जाऊँगा। सुबह होते ही बलराम भैया के साथ चला जाऊँगा और तुम्हारे कहने से मैं नहीं रुकूँगा। ग्वाल बाल और गायों के भीतर मुझे थोड़ा सा भी डर नहीं लगता। नंद बाबा की दुहाई देकर मैं कहता हूँ कि आज मैं नहीं सोऊँगा। पूरी रात मैं जागता रहूँगा। हमारे साथ के सभी ग्वाल बाल ग़ाय को चराने जाएंगे और मैं घर पर बैठा रहूँ अर्थात मैं घर पर नहीं रहूंगा। अंत में सूरदास जी कहते हैं कि माँ यशोदा श्रीकृष्ण से कहती हैं कि हे श्याम अब तुम सो जाओ जैसे ही सुबह होगा वैसे ही मैं तुम्हें गायों को चराने के लिए जाने दूंगी।

 सूरदास के पद का काव्यागत सौंदर्य- 1-सरल सहज स्वाभाविक ब्रजभाषा २- माँ यशोदा से कृष्ण की ज़िद्द का मनोहारी चित्रण ३- रस- वात्सल्य ४- श्रीकृष्ण की निर्भीक भावना व्यक्त हुई है।

सूरदास के पद संख्या-5 का भावार्थ व व्याख्या 

मैया हौं न चरैहौं गाइ ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसो, मेरे पाइ पिराइ
जौं न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौह दिवाइ
यह सुनि माई जसोदा ग्वालिन, गारी देति रिसाइ ।
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै बहराइ
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ।5।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- घिरावत- घेरवाना, पाइ- पैर, पत्याहि- विश्वास, रिसाइ- क्रोध व्यक्त करना, पठवति- भेजना, बहराइ- बहलाकर,

सूरदास के पद का प्रसंग- प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण माँ यशोदा से ग्वालबालों और गोपिकाओं की शिकायत करते हुए कहते हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- हे माँ अब मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी ग्वाल बाल मुझसे गायों को घिरवाते हैं जिससे मेरा पैर दुखने लगता है यदि तुम्हें विश्वास न हो तो बलराम भैया को अपनी सौगंध दे करके पूछ लो। श्रीकृष्ण कि इस बात को सुनकर के माँ यशोदा ग्वाल बालों को गाली देते हुए अपने क्रोध को व्यक्त करते हुए कहती हैं कि मैं अपने लड़के को भेजती हूँ कि वह अपने मन को बहलाकर के आ जाएगा। और अंत में सूरदास जी कहते हैं कि माँ यशोदा कह रही है कि मेरा श्याम अभी बहुत ही छोटा बालक है ये लोग उसे दौड़-दौड़ाकर कि परेशान कर डालते हैं।

सूरदास के पद का काव्यागत सौंदर्य- १- ब्रजभाषा का सरल सहज प्रयोग २- श्रीकृष्ण का बाल मनोवैज्ञानिक चित्रण ३- माँ यशोदा का कृष्ण के प्रति असीमित प्रेम ४- वात्सल्य रस का प्रयोग


सूरदास के पद संख्या-6 का भावार्थ व व्याख्या 

सखी री, मुरली लीजै चोरि ।
जिनि गुपाल कीन्हे अपनै बस, प्रीति सबनि की तोरि।।
छिन इक घर-भीतर, निसि-वासर, धरत न क छोरि
कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खोंसत जोरि ।
ना जानौँ कछु मेलि मोहिनी, राखे अँग-अँग भोरि ।
सूरदास, प्रभु कौ मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि ।।6।।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- छिन- क्षण, निसि-वासर- दिन और रात, धरत- धारण करना, कर- हाथ, अधरनि- ओठ, कटि-कमर, जोरि-जोर से, मेलि मोहिनी- मोहिनी मंत्र, सजनि-सखि

सूरदास के पद का प्रसंग- गोपिकाएँ श्रीकृष्ण की बाँसुरी से घृणा करती है। वे बाँसुरी के प्रति अपने रोष को प्रकट करते हुए कहती हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- हे सखी हमें श्रीकृष्ण की बाँसुरी को चुरा लेना चाहिए। जिस बाँसुरी ने श्रीकृष्ण को अपने बस में कर लिया है और उसने हम सभी के प्रेम को तोड़ दिया है। वह श्रीकृष्ण एक भी क्षण के लिए उस बाँसुरी को अपने से अलग नहीं करते हैं। प्रत्येक क्षण चाहे वह घर में हों, चाहे वह बाहर हों, चाहे दिन हो, चाहे रात हो प्रत्येक क्षण उसे अपने साथ लिए रहते हैं। वह श्रीकृष्ण बाँसुरी को कभी अपने हाथ में ले लेते हैं, कभी उसे वह अपने ओठों से लगा लेते हैं और कभी उसे वह कसकर कमर में खोंस लेते हैं। आगे वह कहती है कि न जाने कौन सा मोहिनी मंत्र उस बाँसुरी ने उन पर चला दिया है जिससे उनका प्रत्येक अंग उस बाँसुरी के बस में हो गया है। और अंत में सूरदास जी कहते हैं कि वह गोपी कह रही है कि हे सखी उस बाँसुरी ने उनको अपने प्रेम रूपी धागे में बांध लिया है।

सूरदास के पद का काव्यागत सौंदर्य- १- गोपिकाएँ कृष्ण की बाँसुरी को अपना सौत समझती हैं २- अंग-अंग में पुनरुक्ति अलंकार द्रष्टव्य है ३- ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग ४- गोपिकाओं का कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम द्रष्टव्य है।


सूरदास के पद संख्या-7 का भावार्थ व व्याख्या 

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं ।
वृन्दाबन गोकुल बन उपवन, सघन कुँज की छाहीं ।
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दयौ सजायौ, अति हित साथ खवावत ।
गोपी ग्वाल बाल सँग खेलत, सब दिन हँसत सिरात ।
सूरदास धनि धनि ब्रजवासी, जिनसौं हित जदु-तात ।7।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- बिसरत- भूलना, सघन-घना, अरु-और, हित-प्रेम, सिरात-व्यतीत होना, धनि-धनि- धन्य हो,

सूरदास के पद का प्रसंग- श्रीकृष्ण गोकुल गाँव के प्रति अपने अनन्य प्रेम को व्यक्त करते हूए उद्धव से कहते हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- हे ऊधव मुझसे मेरा ब्रज नहीं भूल रहा है वह बृंदावन, वह गोकुल गाँव, वह बन और उपवन, वह धनी कुंज के झाड़ी की छाया ये सब नहीं भूल रहा है। सुबह के समय माँ यशोदा और नंद को देख करके मुझे अत्यंत ही सुख प्राप्त होता था। वह माँ मुझे मक्खन रोटी और दही को सजा करके अत्यधिक प्रेमी के साथ है खिलाती थी। गोपियों के साथ ग्वाल बालों के साथ खेलते हुए पूरा दिन हंसते हुए बीत जाता था और अंत में सूरदास जी कहते हैं कि ब्रज में निवास करने वाले वे सभी लोग धन्य हैं जिनको श्रीकृष्ण के साथ रहने का अवसर मिला।

सूरदास के पद का काव्यागत सौंदर्य- १- ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है २- ब्रज जड़-चेतन के प्रति कृष्ण का प्रेम व्यक्त हुआ है ३- ब्रज के प्रति कृष्ण की भक्ति भावना का चित्रण हुआ है ४- शैली सहज और प्रभावमयी है।


सूरदास के पद संख्या-8 का भावार्थ व व्याख्या 

ऊधौ मन न भए दस बीस।
एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस ।
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस ।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ।
तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस ।
सूर हमारै नंदनंदन बिनु, और नहीं जगदीस।8।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- एक हुतौ- एक ही था, अवराधै- आराधना करना, ईस- ईश्वर, शिथिल- स्थिर, केसव-कृष्ण, तन- शरीर, आसा- उम्मीद, कोटि बरिस- करोड़ों वर्ष, सकल- सम्पूर्ण, नंदंनदन- कृष्ण, जगदीश- ईश्वर

सूरदास के पद का प्रसंग- गोपिकाएँ उद्धव से कृष्ण के प्रति अपने एकनिष्ठ प्रेम को व्यक्त करते हुए कहती हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- हे उद्धव हमारे पास दस-बीस मन नहीं है। हमारे पास एक ही मन था जो श्रीकृष्ण के साथ चला गया। अब हम किस ईश्वर की आराधना करें। श्री कृष्ण के बिना हमारी सभी इंद्रियां शिथिल हो गई है और हम उसी प्रकार से हो गए हैं जैसे कि सिर के बिना शरीर श्रीकृष्ण के आने की उम्मीद से ही हमारे शरीर में स्वाँस चल रही है। इस उम्मीद से हम करोड़ों वर्ष जी लेंगे। हे उद्धव तुम तो श्याम के प्रिय मित्र हो संपूर्ण योग के ईश्वर हो और अंत में सूरदास जी कहते हैं कि वे गोपिकाएँ कहती है कि श्रीकृष्ण के अलावा हमारा कोई ईश्वर नहीं है।

सूरदास के पद का काव्यगत सौंदर्य- १- गोपिकाओं का कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम २- ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग ३- वियोग श्रिंगार रस का प्रयोग किया गया है ४- शैली सरल सहज और प्रवाहमयी


सूरदास के पद संख्या-9 का भावार्थ व व्याख्या 

ऊधौ जाहु तुमहिं हम जाने ।
स्याम तुमहिं ह्याँ कौ नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने ।।
ब्रज नारिनि सौं जोग कहत हौं, बात कहत न लजाने।
बड़े लोग न विवेक तुम्हारे, ऐसे भए अयाने ।
हमसौं कही लई हम सहि कै, जिय गुनि लेहु सयाने ।
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, मष्ट करौ पहिचाने।
साँच कहौ तुमको अपनी सौं, बूझति बात निदाने ।
सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैकहुँ मुसकाने ।9।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- जोग- योग मार्ग, विवेक- बुद्धि, अयाने- अज्ञानी, सयाने- समझदार, सौं- सौगंध, मष्ट करौ- चुप रहो, साँच कहौ- सत्य कहना, बुझति- पूछना, निदाने- हल करना, पठायौ- भेजना, नैकहूँ मुसकाने- थोड़ा सा भी मुस्कुराना

सूरदास के पद का प्रसंग- गोपिकाएँ उद्धव को डाँट-फटकार लगाते हुए कहती हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- हे उद्धव हम लोगों ने तुमको जान लिया है श्रीकृष्ण ने तुमको हम लोगों के पास नहीं भेजा है तुम कहीं और जा रहे थे और रास्ता भूलकर हम लोगों के पास चले आए। ब्रज की नारियों से योग की बात कहते हुए तुम्हें थोड़ी सी भी लज्जा नहीं आ रही है। तुम तो बहुत बड़े हो, विवेकी हो, फिर इस प्रकार से अज्ञानी वाली बात क्यों कर रहे हो। आपने अब तक जो कुछ कहा हम लोगों ने उसे धैर्य धारण करके सह लिया। कहाँ एक तरफ़ अबला नारियाँ और कहाँ निर्वस्त्र दिगंबर की स्थिति इसके अन्तर को क्यों नहीं पह्चान रहे हो। आगे गोपिका एक कहती है कि हे उद्धव हम गोपिकाएँ आपको अपनी सौगंध देकर कहती है कि अब हम जो कुछ आपसे पूछेंगे वह हमसे सत्य सत्य बताना की जब श्रीकृष्ण तुमको यहाँ भेज रहे थे तो क्या वह थोड़ा सा भी मुस्कुराए नहीं थे।

सूरदास के पद का काव्यगत सौंदर्य- १- छंद- गेयपद २- वियोग श्रिंगार रस ३- गुण- माधुर्य ४- ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग ५- गोपिकाओं की तर्कशीलता विशेषरूप से द्रष्टव्य है

सूरदास के पद संख्या-10 का भावार्थ व व्याख्या 

निरगुन कौन देस कौ बासी ?
मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बूझति साँच न हाँसी ।।
को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी ?
कैसे बरन, भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी ?
पावैगौ पनि कियौ आपनौ, जौ रे करैगौ गाँसी ।
सुनत मौन है रह्यौ बावरौ, सूर सबै मति नासी ।10।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- निरगुन- निराकार ब्रह्म, बासी- बसने वाला, मधुकर- भ्रमररूपी उद्धव, सौंह- सौगंध, जनक- राजा, जननी- माता, अभिलाषी- अभिषिक्त, गांसी- छल

सूरदास के पद का प्रसंग– गोपिकाएँ उद्धव द्वारा बताए गए निराकार ब्रह्म को नहीं मानती हैं। वे कृष्ण के साकार रूप को ही अपना बनाना चाहती हैं। इसी निराकार ब्रह्म के अस्तित्व की चर्चा करते हुए गोपिकाएँ उद्धव से कहती हैं कि-

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- निराकार ब्रह्म किस देश का रहने वाला है हे उद्धव हम गोपिकाएँ आपको अपनी सौगंध देकर सत्य-सत्य पूछ रही हैं किसी तरह का कोई हँसी मज़ाक नहीं कर रही है। उस निराकार ब्रह्म का राजा कौन है, उसकी रानी कौन है, उसकी माता कौन है, उसकी दासी कौन है, उसका वर्ण कैसा है, किस प्रकार की उसकी वेशभूषा है और किस रस में वह विश्वास करने वाला है। तुम अपने किए का फल ख़ुद ही पाओगी यदि हम लोगों के साथ छल करोगे। गोपिकाओं की इस बात को सुन करके उद्धव बावले होकर मौन रह जाते हैं। उनकी सभी बुद्धि नष्ट हो जाती है।

सूरदास के पद का काव्यगत सौंदर्य- १- ब्रजभाषा सरल व सहज है २- छंद- गेयपद ३- गोपिकाएँ भ्रमर के माध्यम से उद्धव पर व्यंग्य की हैं ४- रस- वियोग श्रगार

सूरदास के पद संख्या-11 का भावार्थ व व्याख्या 

संदेसौं देवकी सौं कहियौ ।
हौं तो धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ ।
जदपि टेव तुम जानतिं उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै।
प्रात होत मेरे लाल लड़ैतैं, माखन रोटी भावै।।
तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते
जोइ-जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम क्रम करि कै न्हाते ।।
सूर पथिक सुन मोहिं रैनि दिन, बढ्यौ रहत उर सोच ।
मेरौ अलक लड़ैतो मोहन, ह्वैहै करत सँकोच ।11।

सूरदास के पद का शब्दार्थ- कहियौ- कहना, धाइ- केवल पालन-पोषण करने वाली, सुत-पुत्र, मया-दया, टेव- आदत, भावै- अच्छा लगना, अरु- और, तातो जल- गर्म जल, भजि- भाग जाना, रैनि- रात्रि

सूरदास के पद का प्रसंग- उद्धव गोपिकाओं को योग का संदेश समझाने में असफल सिद्ध होते हैं। अब वह मथुरा जाने की तैयारी में हैं। माँ यशोदा उद्धव से कहती हैं कि मेरा यह संदेश देवकी से कहना कि –

सूरदास के पद का भावार्थ व व्याख्या- मेरा संदेश देवकी से जाकर कहना कि मैं तो श्रीकृष्ण की पालन करने वाली माँ हूँ। फिर भी वह मुझ पर दया करती रहेंगी। यद्यपि वह श्रीकृष्ण की आदतों को जानती है। मेरा कुछ कर्तव्य है बताने का जो बता रही हूँ सुबह होते ही मेरे लाड़ले कृष्ण को मक्खन और रोटी खाना बहुत अच्छा लगता है। तेल, उबटन और गर्म जल को देखते ही वह भाग जाते हैं।जो-जो वह माँगते थे वह सब मैं उनको देती थी। अंत में सूरदास जी कहते हैं कि माँ यशोदा कह रही है की हे उद्धव देवकी से कहना की दिन रात श्रीकृष्ण के विषय में सोचकर मुझे बहूत कष्ट होता है क्योंकि मेरा लाड़ला कृष्ण खाने-पीने में बहुत ही संकोच करता है। इसलिए वह उसका ध्यान रखती रहेंगी।

सूरदास के पद का काव्यगत सौंदर्य- १-जोइ-जोइ में पुनरुक्ति अलंकार है २- ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है ३- माधुर्य गुण है ४- यशोदा में माँ के उच्चतम गुण विद्यमान पाए गए हैं ५- भक्ति का निरूपण हुआ है।

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