भोजस्यौदार्यम का हिन्दी अनुवाद bhojasyodaryam ka anuwad

भोजस्यौदार्यम का हिन्दी अनुवाद bhojasyodaryam ka anuwad up board class 12

ततः कदाचिद् द्वारपाल आगत्य महाराजं भोजं प्राह ‘देव, कौपीनावशेषो विद्वान् द्वारि वर्तते’ इति। राजा ‘प्रवेशय’ इति प्राह। ततः प्रविष्टः सः कविः भोजमालोक्य अद्य मे दारिद्र्यनाशो भविष्यतीति मत्वा तुष्टो हर्षाश्रूणि मुमोच। राजा तमालोक्य प्राह-‘कवे, किं रोदिषि’ इति। ततः कविराह- राजन् ! आकर्णय मद्‌गृहस्थितिम्-

भोजस्यौदार्यम का अनुवाद- तत्पश्चात कभी द्वारपाल आकर महाराज भोज से कहता है कि हे देव लंगोट मात्र शेष विद्वान द्वार पर है। राजा कहते हैं कि उसे प्रवेश कराओ। तब प्रवेश करके वह कवि भोज को देखकर आज मेरी दरिद्रता का नाश हो जाएगा ऐसा मानते हुए संतुष्टि से प्रसन्नता के आँसू गिराता है। राजा उसे रोता हुआ देखकर कहते हैं कि हे कवि क्यों रो रहे हो। तब वह कवि कहता है कि हे राजन मेरे घर की स्थिति सुनो-

शब्दार्थ- आगत्य- आकर, प्राह- कहा, कौपीनावशेषो- लंगोट मात्र शेष, अद्य- आज, मत्वा- मानकर, तुष्टो- संतुष्ट, हर्षाश्रूणि- हर्ष के आँसू, मुमोच- गिराना, आकर्णय- सुनो, मद्‌गृहस्थितिम्- मेरे घर की स्थिति

अये लाजानुच्चैः पथि वचनमाकर्ण्य गृहिणी 
शिशौः कर्णों यत्नात् सुपिहितवती दीनवदना ।।
मयि क्षीणोपाये यदकृतं दृशावश्रुबहुले 
तदन्तः शल्यं मे त्वमसि पुनरुद्धर्तुमुचितः ।।

अनुवाद- खील ले लो पथिक के मुँह से उच्चरित उच्च वाणी को सुनकर दीनवदना मेरी पत्नी ने अपने बच्चों के कानों को यत्नपूर्वक बंद कर दिया। मुझ उपायहीन की तरफ अश्रु से भरी ऐसी दृष्टि डाली जो मेरे हृदय में बाण की तरह चुभ गई है। जिसे निकालने में हे राजन आप ही समर्थ हो।

भोजस्यौदार्यम शब्दार्थ- लाजा- खील, पथि- मार्ग, यत्नात- यत्नपूर्वक, सुपिहितवती- बंद कर दिया, क्षीणोपाये- उपायहीन, दृशावश्रुबहुले- अश्रु से भरी दृष्टि, 

राजा शिव, शिव इति उदीरयन् प्रत्यक्षरं लक्षं दत्त्वा प्राह ‘त्वरितं गच्छ गेहम्, त्वद्गृहिणी खिन्ना वर्तते’। अन्यदा भोजः श्रीमहेश्वरं नमितुं शिवालयमभ्यगच्छत्। तदा कोपि ब्राह्मणः राजानं शिवसन्निधौ प्राह-देव!

अनुवाद– राजा शिव शिव ऐसा कहते हुए उसके प्रत्येक अक्षर पर लाख रुपया देते हुए कहा कि शीघ्रता से घर जाओ तुम्हारी पत्नी दुखी हैं। दूसरे दिन राजा भोज श्री माहेश्वर को नमस्कार करने के लिए शिवालय गए थे। तब कोई ब्राह्मण शिवालय के समीप राजा से कहता है कि हे देव-

शब्दार्थ– उदीरयन- कहना, प्रत्यक्षरं- प्रत्येक अक्षर पर, ‘त्वरितं- शीघ्रता से, त्वद्गृहिणी- तुम्हारी पत्नी, खिन्ना- दुखी, अन्यदा- दूसरे दिन, नमितुं- नमस्कार करके, कोपि- कोई, शिवसन्निधौ- शिवालय के समीप,

अर्द्ध दानववैरिणा गिरिजयाप्यर्द्ध शिवस्याहृतम् 
देवेत्थं जगतीतले पुरहराभावे समुन्मीलति ।।
गङ्गा सागरमम्बरं शशिकला नागाधिपः क्ष्मातलम् सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वमगमत् त्वां मां तु भिक्षाटनम् ।।

अनुवाद– शिव का आधा अंग दानवों के शत्रु विष्णु और आधा अंग पार्वती जी ले गयी। जिससे  पृथ्वीतल पर शिव का अभाव हो जाने से गंगा सागर से चंद्रकला आकाश से शेषनाग पृथ्वितल से जाकर मिल गए। सर्वज्ञता और अधीश्वरता आपमें आ गयी। मेरे हिस्से में तो भिक्षाटन ही पड़ा है।

शब्दार्थ– अर्द्ध- आधा, दानववैरिणा- दानवों के शत्रु विष्णु, गिरिजया- पार्वती ने, आहतम- ले लिया, इत्थं- इस प्रकार से, समुन्मीलति- मिलना, शशिकला- चंद्रमा की कला, नागाधिपः- शेषनाग, क्ष्मातलम्- पाताल लोक,  सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वमगमत्- सर्वज्ञता व अधीश्वरता आपमें आ गयी।

राजा तुष्टः तस्मै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। अन्यदा राजा समुपस्थितां सीतां प्राह ‘देवि! प्रभातं वर्णय’ इति। सीता प्राह-

अनुवाद– राजा संतुष्ट होते हुए उसके प्रत्येक अक्षर पर लाख रुपये दिये। अन्य दिन राजा समीप ही उपस्थित सीता से कहा हे देवि प्रभात का वर्णन करो। सीता ने कहा- 

विरलविरलाः स्थूलास्ताराः कलाविव सज्जनाः 
मन इव मुनेः सर्वत्रैव प्रसन्नमभून्नभः ।।
अपसरति च ध्वान्तं चित्तात्सतामिव दुर्जनः
व्रजति च निशा क्षिप्रं लक्ष्मीरनुद्यमिनामिव।।

अनुवाद– आकाश में बड़े-बड़े तारे कहीं-कहीं ही उसी प्रकार से दिखायी दे रहे हैं जिस प्रकार से कलयुग में सज्जन कम दिखायी देते हैं। मुनि के मन के समान पृथ्वी पर प्रसन्नता सभी तरफ फैली है। अंधकार उसी प्रकार से दूर हो रहा है जिस प्रकार से सात्विक मन वाले व्यक्ति से दुर्जनता दूर होती है। रात्रि उसी प्रकार से जा रही है जिस प्रकार से अनुद्यमी व्यक्ति के पास से लक्ष्मी चली जाती हैं।

शब्दार्थ–  विरलविरलाः- कहीं-कहीं, स्थूल- बड़ा, सर्वत्रैव- सभी जगह, अपसरति- दूर होना, ध्वान्तं- अंधकार, चित्त- हृदय, व्रजति- गुजरना, निशा- रात्रि

राजा तस्य लक्षं दत्त्वा कालिदासं प्राह – ‘सखे, त्वमपि प्रभातं वर्णय’ इति। ततः कालिदासः प्राह-

अनुवाद– राज उसे लाख रूपये देकर कालिदास से कहता है ये मित्र तुम भी प्रभात का कुछ वर्णन करो तब कालिदास  कहते हैं कि-

अभूत् प्राची पिङ्गा रसपतिरिव प्राप्य कनकं 
गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि । 
क्षणं क्षीणास्तारा नृपतय इवानुद्यमपराः
न दीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः।।

अनुवाद– पूर्व दिशा सुवर्ण (प्रातःकाल के सूर्य की सुनहली किरण) को प्राप्त करके पारे के समान पीली हो गयी है।चंद्रमा वैसे ही तेजहीन हो गया है जैसे गँवारों की सभा में विद्वान। तारे अनुद्यमी राजाओं के समान क्षणभर में क्षीण हो गए हैं। निर्धनों के गुणों के समान दीपक सुशोभित नहीं हो रहे हैं।

शब्दार्थ– अभूत- हो गयी है, प्राची- पूर्व दिशा, पिङ्गा- पीली, रसपतिरिव- पारे के समान, कनकं-स्वर्ण, बुधजन- विद्वान, ग्राम्यसदसि- गंवारों की सभा, नृपतय- राजा, राजन्ते- सुशोभित होना।

राजातितुष्टः तस्मै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ।

अनुवाद– राजा अत्यधिक संतुष्ट होते हुए उसके प्रत्येक अक्षर पर लाख रुपये दिये।

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