स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन का सारांश

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन का सार या सारांश

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन पाठ के लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी है। इस पाठ की साहित्यिक विधा निबन्ध है। आज हमारे समाज में लड़कियां शिक्षा पाने एवं कार्यक्षेत्र में क्षमता दर्शाने में लड़कों से बिलकुल भी पीछे नहीं हैं किंतु यहाँ तक पहुँचने के लिए अनेक स्त्री-पुरुषों ने लंबा संघर्ष किया। नवजागरण काल के चिंतकों ने मात्र स्त्री शिक्षा ही नहीं बल्कि समाज में जनतांत्रिक एवं वैज्ञानिक चेतना के संपूर्ण विकास के लिए अलख जगाया। द्विवेदी जी का यह लेख उन सभी पुरातनपंथी विचारों से लोहा लेता है जो स्त्री-शिक्षा को व्यर्थ अथवा समाज के विघटन का कारण मानते थे। इस लेख की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें परंपरा को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारा गया है, बल्कि विवेक से फैसला लेकर ग्रहण करने योग्य को लेने की बात की गई है और परंपरा का जो हिस्सा सड़-गल चुका है, उसे रूढ़ि मानकर छोड़ देने की। यह विवेकपूर्ण दृष्टि संपूर्ण नवजागरण काल की विशेषता है। आज इस निबंध का अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व है।

यह लेख पहली बार सितंबर 1914 की सरस्वती में पढ़े लिखों का पांडित्य शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। बाद में द्विवेदी जी ने इसे महिला मोद पुस्तक में शामिल करते समय इसका शीर्षक स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन रख दिया था। इस निबंध की भाषा परिवर्तन को हमने संशोधित करने का प्रयास नहीं किया है।

लेखक इस बात पर दुख व्यक्त करता है कि वर्तमान समय में भी बहुत से ऐसे सभ्य और सुशिक्षित व्यक्ति हैं जो स्त्री-शिक्षा को अवनति का कारण मानते हैं। ऐसे शिक्षित लोग जो शिक्षक हैं, विद्वान हैं, साहित्यकार हैं, अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि पुराने संस्कृत नाटकों से भी यही सिद्ध होता है कि स्त्री-शिक्षा आवश्यक नहीं है। स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होता है, यदि शकुंतला अनपढ़ होती तो अपने पति के विषय में कटुवचन कदापि नहीं कहती। शकुलता ने अपढ़ों की भाषा का प्रयोग किया था। अतः अपढ़ों की भाषा सिखाना भी विनाश की ओर जाना है।

 

नाटकों में स्त्रियाँ संस्कृत न बोलकर प्राकृत भाषा का प्रयोग करती थीं जो अनपढ़ और गंवार होने का प्रमाण नहीं है। कई जगह तो वन्य प्राणियों से भी संस्कृत बुलवाई गई हैं। भवभूति और कालिदास के समय में सभी शिक्षित संस्कृत बोलते थे। लेखक यह भी पूछता है कि इसका क्या प्रमाण है कि पहले समय में प्राकृत बोलचाल की भाषा नहीं थी। बौद्धों, जैनों के लिखित ग्रंथ तथा भगवान शाक्य द्वारा उपदेश प्राकृत भाषा में दिये जाने से तो यह सिद्ध होता है कि प्राकृत भाषा उस समय बोली जाती थी। प्राकृत उस समय सर्वसाधारण की भाषा थी। उस समय शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्री, पाली आदि भाषाएँ प्राकृत थीं, आज हिन्दी, बांगला आदि हैं। जिस प्रकार आज हम हिन्दी, मराठी आदि पढ़कर शिक्षित और विद्वान होते है ठीक उसी तरह उस जमाने में लोग प्राकृत पढ़कर होते थे।

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन में लेखक बताता है कि जिस समय नाट्यशास्त्र संबंधी नियम बनाए गए थे तब संस्कृत बोलने वालों की संख्या बहुत कम थी। इसी कारण आचार्यों ने सामान्य लोगों और स्त्रियों को प्राकृत भाषा को अपनाने के लिए कहा। पहले समय में स्त्रियों के लिए विश्वविद्यालय न होने के कारण उन्हें नियमानुसार शिक्षा नहीं मिल पाती थी। नए-नए आविष्कारों और खोज संबंधी ग्रंथों के अस्तित्व को तो हम स्वीकार करते हैं किंतु उस समय की स्त्रियों को अनपढ़ एवं गंवार बताते हैं। प्रायः हिन्दू मानते हैं कि वेदों की रचना ईश्वर ने की है। ईश्वर ने वेद-मत्रों का उच्चारण स्त्रियों से करवाया है और मनुष्य है कि स्त्री को पढ़ाना पाप मानता है। जहाँ स्त्रियों को सभी प्रकार के कार्य करने की अनुमति हो वहाँ स्त्री को पढ़ने की अनुमति न हो, इस पर विश्वास नहीं होता। ऋषि-पलियाँ व्याख्यान में बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त कर देती थीं। व्यंग्यात्मक रूप में लेखक कहता है कि वे स्त्रियों पढ़ती नहीं तो महान पुरुषों से मुकाबला करने का पाप न होता। पढ़ाई का सदुपयोग तो पुरुष स्त्री पर अत्याचार करके करता है। स्त्री के लिए शिक्षा जहर और पुरुष के लिए शिक्षा अमृत बताई गई है। ऐसे लोग इस प्रकार के तर्क देकर स्त्री को अनपढ़ रखकर भारत का गौरव बढ़ाने में लगे रहते हैं।

लेखक अपना विचार प्रकट करते हुए कहता है कि माना पहले स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं किंतु आज समय बदल गया है इसलिए स्त्रियों को पढ़ाने पर बल दिया जाना चाहिए। रूक्मिणी ने जिस भाषा में श्रीकृष्ण को प्रेम-पत्र लिखा था वह प्राकृत में नही था और न ही उससे उनके अनपढ़ या गंवार होने का प्रमाण मिलता है। सनातन-धर्मावलंबियों की दृष्टि में नाटकों की अपेक्षा भागवत का महत्व अधिक होना चाहिए और इस आधार पर स्त्रियों की अनपढ़ता पर

यदि स्त्रियों को पढ़ाकर अनर्थ किया जा रहा है तो पुरुषों द्वारा किए जाने वाले अनर्थ को भी उनकी शिक्षा का फल समझा जाना चाहिए। उसके द्वारा किए जाने वाले असामाजिक कार्यों के आधार पर शिक्षण संस्थाएँ बंद कर देनी चाहिएँ। लेकिन इस तरह के तर्क देने वाले बहुत कम हैं। शकुंतला का दुष्यंत को फटकार लगाना स्वाभाविक था। पत्नी पर अत्याचार कर उससे अनुकूल व्यवहार की आशा करने वाले अज्ञानी हैं। इसी प्रकार की दशा राम द्वारी त्यागी गई सीता की थी। उसने भी लक्ष्मण के माध्यम से राम को भला-बुरा कहा है। इस प्रकार उनका त्याग करके राम ने अपने कुल, मर्यादा पर कलंक लगाया है।

सीता ने कटु वचन कहते हुए राम को नाथ या आर्यपुत्र आदि न कहकर ‘राजा’ शब्द से संबोधित किया। वह कोई गंवार या पतीत नारी नहीं थी, वह तो परम ज्ञानी राजा जनक की धर्मशास्त्रों का ज्ञान रखने वाली बेटी थी। सीता के त्याग से शांत, क्षमाशील स्वभाव वाले तपस्वी वाल्मीकि भी दुखी होकर राम पर अपना क्रोध व्यक्त करते हैं। अपने पर हुए अत्याचार के विरोध में सीता द्वारा कहे गए कटु वचन किसी अनपढ़, गंवार या कुलहीन नारी के नहीं है।

पढ़ाई करने से अनर्थ नहीं होता और न ही स्त्री को शिक्षा देने पर ही अनर्थ होता है। अनर्थ होना हो तो पुरु से भी हो सकता है। समाज में होने वाले अत्याचार, दुराचार व्यक्ति विशेष के चरित्र और स्वभाव पर निर्भर हैं औ उन्हें जाना भी जा सकता है। अतः स्त्री को अवश्य ही शिक्षित करना चाहिए। जो लोग पुराने समय में स्त्री-शिक्ष को आवश्यक नहीं बताते थे वे या तो इतिहास नहीं जानते या फिर लोगों को धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं। ऐन लोगों को दण्ड देना चाहिए। जो लोग स्त्रियों को शिक्षा दिलाने के पक्ष में नहीं है वे समाज का बुरा करने के साथ-सा अपराध भी कर रहे हैं। और समाज के विकास में बाधक हैं।

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