सुदामा चरित नरोत्तम दास द्वारा लिखित सच्चे मित्र की सीख देने वाली श्रेष्ठतम कविता है कृष्ण और सुदामा बचपन के मित्र थे। दोनों जब गुरु आश्रम में थे तो गुरु माता ने इन्हें चना देकर कहा कि जाओ भूख लगे तो खा लेना और जंगल से लकड़ी ले आओ। यह लोग लकड़ी बीनने के लिए चल दिए कृष्ण पेड़ पर चढ़कर जब लकड़ी तोड़ रहे थे तो सुदामा चने को अकेले ही खाने लगे कृष्ण कटकटाने की आवाज सुनकर पूछते हैं चना खा रहे हो क्या सुदामा? तो सुदामा कहते हैं की ठंड के कारण दांत कटकटा रहे हैं। इसके बाद बड़े होने पर सुदामा का जीवन गरीबी और विपन्नता में बितता है और कृष्ण द्वारका के राजा बन जाते हैं तब सुदामा की पत्नी कहती हैं की आपके मित्र राजा हैं सहायता के लिए उनके पास जाओ सुदामा जाते हैं दोनों मित्र बड़े ही प्रेम से एक दूसरे के गले मिलते हैं । कृष्ण पूछते हैं की भाभी ने हमें खाने के लिए कुछ दिया है क्या तब सुदामा कांख में चावल की पोटली को दबाने लगते हैं । उसके बाद भगवान कृष्ण उस पोटली को खींचकर खा जाते हैं। इस तरह मान सम्मान पाने के बाद जब सुदामा अपने गांव पहुँचते हैं तो देखते हैं गांव पूरी तरह भव्य नगर में बदल गया है। सबकी झोपड़ियां सुंदर महल में तब्दील हो गई हैं। इस तरह से कृष्ण अपने मित्र की गरीबी दूर करके मित्रता के सच्चे कर्तव्य को निभाते हैं।
सुदामा चरित पाठ का भावार्थ व व्याख्या
सीस पगा न झँगा तन में प्रभु! जाने को आहि बसे केहि ग्रामा।
धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह को नहिं सामा।।
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकिसों बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा ।
सुदामा चरित का संदर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक वसंत में संकलित सुदामा चरित से उद्धृत है। जिसके कवि नरोत्तमदास हैं।
सुदामा चरित का प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में नरोत्तम दास जी ने लिखा है कि सुदामा अपनी पत्नी के ताने-उलहाने सुनकर श्री कृष्ण से मिलने के लिए तैयार होते हैं और द्वारका के लिए रवाना हो जाते हैं। द्वारका पहुंचकर वह श्री कृष्ण के भवन की तलाश कर रहे हैं।
सुदामा चरित का भावार्थ– द्वारपाल आकर श्रीकृष्ण से कहता है कि, हे प्रभु पता नहीं कौन व्यक्ति है, किस गाँव से आया है? उसके सिर पर न तो पगड़ी है न ही शरीर पर कुरता है। उसकी धोती भी फटी हुई है और वह गंदा सा दुशाला ओढ़े हुए है। और उसके पैर में जूते भी नहीं हैं। दरवाजे पर खड़ा वह दुर्बल ब्राह्मण आश्चर्यचकित होकर कभी जमीन को देखता है तो कभी आपके महल को। वह अपना नाम सुदामा बता रहा है और आपके निवास स्थान के बारे में बार-बार पूछ रहा है।
ऐसे बेहाल बिवाइन सों, पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।
हाय! महादुख पायो सखा, तुम आए इतै न कितै दिन खोए।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहि, नैनन के जल सों पग धोए।।
सुदामा चरित का प्रसंग– सुदामा चरित पाठ के इस पद्यांश में लेखक नरोत्तमदास ने सुदामा की करुण और दयनीय दशा के प्रति कृष्ण के भावनात्मक प्रेम को व्यक्त किया है।
सुदामा चरित का भावार्थ– इतना सुनते ही श्रीकृष्ण द्वार पर दौड़ते हुए गये और सुदामा को महल में ले आए। सुदामा के पैरों में बिवाइयाँ पड़ी हुई थीं। कृष्ण ने उनके पैरों से काँटे निकाले। कृष्ण ने सुदामा की दीन-हीन दशा को देखकर कहते है कि हे मित्र तुमने बहुत कष्ट सहे। इतने दिनों तक तुम कहाँ थे, मेरे पास पहले ही क्यों नहीं आये। कवि कहता है कि सुदामा से बातें करते-करते प्रभु कृष्ण उनकी दीन-हीन हालत पर करुणा से भर गए। वे सुदामा की दयनीय स्थिति देखकर इतने व्याकुल थे कि सुदामा के पैर धोने के लिए लाए गये परात के पानी को उन्होंने छुआ तक नहीं। कृष्ण के इतने आँसू बहे कि उनसे ही सुदामा के पैर धुल गए।
कुछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहो केहि हेतु।।
आगे चना गुरुमातु दए ते, लए तुम चाबि हमें नहिं दीने।
स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों, “चोरी की बान में हौ जू प्रवीने।।
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा रस भीने।
पाछिलि बानि अजौ न तजो तुम, तैसई भाभी के तंदुल कीन्हे।।”
सुदामा चरित्र का प्रसंग– सुदामा चरित के इस पद में कवि नरोत्तमदास में कृष्ण और सुदामा के बचपन की मित्रता का जिक्र किया है।
सुदामा चरित का भावार्थ- कृष्ण ने सुदामा की बगल में दबी पोटली को देखकर पूछा कि भाभी ने जो भेंट दी है, वह क्यों नहीं दे रहे हो। कृष्ण जी सुदामा से कहते हैं कि जब हम दोनों गुरु के आश्रम में पढ़ते थे, तब गुरुमाता चने खाने को देती थीं तो वे चने तुम अकेले ही खा जाते थे, मझे नहीं देते थे। मुस्कुराते हुए कृष्ण जी कहते हैं कि तुम चोरी की विद्या में पहले से ही चतुर हो, बचपन की आदत तुमने अभी भी नहीं छोड़ी है इसिलए भाभी के द्वारा दिए हुए अमृत के समान चावल, तुमने अपने बगल में दबा रखा है, तुम उसे खोल क्यों नहीं रहे हो।
वैसोई राज-समाज बने, गज, बाजि घने मन संभ्रम छायो।
कैधों परयो कहुँ मारग भूलि, कि फैरि कै मैं अब द्वारका आयो।।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गाँव मझायो।
पूँछत पाँडे फिरे सब सों, पर झोपरी को कहुँ खोज न पायो।
सुदामा चरित का प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में कवि नरोत्तमदास ने सुदामा के गांव पहुँचकर अपनी झोपड़ी को न खोज पाने का और सभी झोपड़ियों के महल में परिवर्तित होने का चित्रण किया गया है।
सुदामा चरित का भावार्थ सुदामा जब अपने गाँव पहुँचते है तो द्वारका जैसा ही राजसी माहौल अपने गाँव में भी पाते है। अपने घर के सामने हाथी-घोड़े देखकर वे भ्रम में पड़ गए और सोचने लगे कि कहीं वे रास्ता भूलकर फिर से द्वारका तो नहीं पहुंच गए हैं। वे अपने घर के स्थान पर ऊँचा भवन देखकर गाँव वालों से पूछते-फिर रहे हैं कि उनकी झोंपड़ी की जगह यह भवन किसका है। पूरे नगर में घूमने के बाद भी सुदामा अपनी झोंपड़ी कहीं न खोज पाए।
कै वह टूटी-सी छानी हती, कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती, कहै लै गजराजहु ठाढ़े महावत।।
भूमि कठोर पै रात कटै, कहाँ कोमल सेज पै नींद न आवत।।
कै जुरतो नहिं कोदो सवाँ, प्रभु के परताप तें दाख न भावत।।
सुदामा चरित का भावार्थ– सुदामा झोंपड़ी की जगह सोने से बना महल देखकर आश्चर्यचकित रह गए। सुदामा के पैरों में कभी जूती तक नसीब न होती थी, अब उनकी सेवा में वहाँ महावत हाथी लिए हुए सदैव खड़े रहते हैं। सुदामा गरीबी में जहाँ कठोर भूमि पर सोते थे, अब कोमल गद्दों पर भी उन्हें नींद नहीं आती। कभी-कभी सुदामा अपना पेट भरने के लिए कंद-मूल भी एकत्रित नहीं कर पाते थे, अब वह भिन्न-भिन्न प्रकार के इतने भोजन खाते हैं कि उनसे अब अंगूर भी नहीं खाए जाते हैं। यह सब प्रभु कृष्ण के प्रताप का प्रभाव है। अर्थात् भगवान कृष्ण ने उनकी गरीबी दूर कर दी।
सुदामा चरित का प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. सुदामा की दीन दशा देखकर श्रीकृष्ण की क्या मनोदशा हुई?अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तरः सुदामा की दीन-हीन दशा को देखकर श्रीकृष्ण व्याकुल हो उठे। सुदामा कृष्ण के बचपन का साथी था। कृष्ण स्वयं राजा थे उन्होंने जब सुदामा को दीन-हीन स्थिति में अपने द्वार पर आया देखा तो उन्हें दुख के साथ-साथ खुशी भी हुई। अपने बचपन के मित्र को आया देखकर उन्होंने सुदामा को अपने गले लगा लिया।
प्रश्न 2.“पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।” पंक्ति में वर्णित मनोदशा का वर्णन अपने शब्दों
उत्तर– अपने बालसखा सुदामा का मान सम्मान करने के लिए कृष्ण ने सुदामा को सिंहासन पर बिठाया। जैसे ही कृष्ण सुदामा के पैर धोने लगे तैसे ही कृष्ण की आँखों से आँसू बहने लगे। गरीब सुदामा की हालत कृष्ण से देखी नहीं जाती थी। नरोत्तम दास जी आगे कहते हैं कि कृष्ण की आँखों में इतने आंसू निकले कि उन्होंने पैर धोने के लिए लाए गए पानी से भरे बर्तन को हाथ से छुए बिना आँसुओं से ही सुदामा के पैर धुल डाले।
प्रश्न -3 चोरी की बान में हौ जू प्रवीने।”
(क) उपर्युक्त पंक्ति कौन किससे कह रहा है?
(ख) इस कथन की पृष्ठभूमि स्पष्ट कीजिए।
(ग) इस उपालंभ के पीछे कौन-सी पौराणिक कथा है?
उत्तर:
(का) ‘चोरी की बान में हौ जू प्रवीने’ यह पक्ति श्री कृष्ण जी ने सुदामा से कही है।
(ख) सुदामा अपनी पत्नी द्वारा दिए गए उपहार स्वरूप भुने चावल की पोटली को कृष्ण की दृष्टि से छुपा रहे थे। सुदामा को पत्नी द्वारा दिया गया उपहार तुच्छ प्रतीत हो रहा था, इसलिए कृष्ण सुदामा से कहते हैं कि चोरी की बात में तुम पहले से ही चतुर हो।
(ग) बचपन में गुरु माता द्वारा दिए गए चने को सुदामा प्रायः कृष्ण से छिपाकर खा जाते थे। सुदामा कृष्ण से मिलने पर पत्नी द्वारा दिए गए भुने चावल की पोटली को छिपा रहे हैं। कृष्ण ने उपालंभ दिया कि तुमने अब भी चोरी की आदत नहीं छोड़ी है।
प्रश्न 4. द्वारका से खाली हाथ लौटते समय सुदामा मार्ग में क्या-क्या सोचते जा रहे थे वह कृष्ण के व्यवहार से क्यों खीझ रहे थे?सुदामा के मन की दुविधा को अपने शब्दों में प्रकट कीजिए।
उत्तर: कृष्ण सुदामा के मित्र थे। सुदामा अपनी पत्नी के ताने सुनकर कृष्ण से मिलने द्वारका पहुंचे थे। सुदामा को आशा थी कि कृष्ण उनकी दीन-हीन स्थिति को जानकर उसे दूर करने का प्रयास करेंगे। परंत, स्वाभिमानी सुदामा कृष्ण से किसी भी प्रकार का सहयोग उपहार, भेंट आदि न पा सके। घर वापस लौटते हुए सुदामा सोच रहे थे कि वे खाली हाथ लौटने पर पत्नी को क्या जवाब देंगे।
प्रश्न 5. सुदामा अपने गाँव लौटकर जब अपनी झोपड़ी नहीं खोज पाए तो उनके मन में क्या-क्या विचार आए कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः गाँव वापस लौटने पर सुदामा को अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी दिखाई नहीं दी। तब वह मन ही मन सोचने लगे कि उनकी झोपड़ी की जगह यह महल कहाँ से आ गया। वह सोचते है कि कहीं वह मार्ग भूलकर पुनः द्वारका तो नहीं आ गए।
प्रश्न-6 निर्धनता के बाद मिलने वाले संपन्नता का चित्रण कविता की अंतिम पंक्ति में वर्णित है। उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर– निर्धनता के बाद मिलनेवाली संपन्नता अत्यंत आनंददायक एवं सुखदायी होती है। पहले जहाँ वह दो जून की रोटी के लिए घर-घर भटकते फिरते थे, आज वे छप्पन भोग का आनंद लेते हैं। अब उनके नंगे पैरों में छालों को जगह मखमल का सुनहरा जूता है। नौकर-चाकर उनकी सेवा के लिए तैयार खड़े रहते हैं। संपन्नता मिलने पर उनको घास की झोपड़ी एक बड़े महल में बदल जाती है। उनका जीवन जीने का स्तर बदल जाता है।
सुदामा चरित का कविता से आगे
प्रश्न-1- द्रुपद और द्रोणाचार्य भी सहपाठी थे। इनकी मित्रता और शत्रुता की कथा महाभारत से खोजकर सुदामा के कथानक से तुलना कीजिए।
उत्तर– द्रुपद और द्रोणाचार्य भी सहपाठी थे बचपन में द्रुपद ने द्रोणाचार्य को वचन दिया था कि वह राजा बनने पर उनकी सहायता अवश्य करेंगे। परन्तु द्रुपद राजा बनने के बाद अहंकारी हो गए। आवश्यकता पड़ने पर द्रुपद ने अपने बालसखा द्रोणाचार्य की सहायता नहीं की। इतना ही नहीं द्रुपद ने द्रोणाचार्य की विपन्नता पर उन्हे अपमानित भी किया। द्रोणाचार्य को द्रुपद के कठोर वचन चुभ गए। आहत द्रोणाचार्य ने अपने मित्र का अहंकार तोड़ने के लिए द्रुपद को युद्ध में हराया।
कृष्ण और सुदामा की मित्रता निस्वार्थ व भेदभाव से रहित थी जबकि द्रुपद-द्रोणाचार्य की मित्रता में ऊँच-नीच व गरीब-अमीर का भेदभाव था।
प्रश्न 2. उच्च पद पर पहुँचकर या अधिक समृद्ध होकर व्यक्ति अपने निर्धन माता-पिता-भाई-बंधुओं से नजर फेरने लग जाता है, ऐसे लोगों के लिए सुदामा चरित कैसी चुनौती खड़ी करता है? लिखिए।
उत्तर– आपसी सम्बन्धों में ऊँच-नीच अमीरी-गरीबी का कोई भेद नहीं होना चाहिए। सुदामा-चरित पाठ में नरोत्तमदास ने दोनों में निस्वार्थ व सच्ची दोस्ती का निरूपण किया है। जो लोग समृद्ध होकर या उच्च पद पर पहुँच कर घमंडी हो जाते हैं स्वार्थी हो जाते हैं, उनके लिए यह कथा प्रेरक-शाक्ति का काम करती है कि वे मानवीयता के आधार पर आपसी संबंधों को न त्यागे।
सुदामा चरित का अनुमान और कल्पना
प्रश्न 1. अनुमान कीजिए यदि आपका कोई अभिन्न मित्र आपसे बहुत वर्षों बाद मिलने आए तो आप को कैसा अनुभव होगा?
उत्तरः बचपन में मित्रों के साथ रहने का और खेलने-कूदने का कुछ अलग ही आनंद होता है। दोनों में सहोदरों का सा प्रेम होता है। जब कभी कोई बाल सखा मिलता है तो उससे मिलकर अपार खुशी मिलती है।
प्रश्न-2-
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहुत रीति।
विपति कसौटी जे कसे तेई सांचे मीत ।
इस दोहे में रहीम ने सच्चे मित्र की पहचान बताई है। इस दोहे से सुदामा चरित की समानता किस प्रकार दिखती है? लिखिए।
उत्तर-इस दोहे में रहीम ने सच्ची मित्रता का लक्षण बताया है जो कि कृष्ण-सुदामा के संबंध में बिल्कुल सही है। सच्चा मित्र वही होता है जो कष्ट और दुख में साथ दे। सुदामा की सहायता करके कृष्ण ने सच्ची दोस्ती के कर्तव्य को निभाया है।