हिन्दी साहित्य का नामकरण / hindi sahity ka namkaran
“युगों का नामकरण यथासंभव मूल साहित्य चेतना को आधार मानकर साहित्य की प्रवृति के अनुसार करना चाहिए किंतु जहां ऐसा नहीं हो सकता वहां राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति को आधार बनाया जा सकता है या फिर कभी-कभी विकल्प न होने पर निर्विशेष कालवाचक नाम को भी स्वीकार किया जा सकता है। नामकरण में एकरूपता काम्य है, किंतु उसे सायास सिद्ध करने के लिए भ्रान्तिपूर्ण नामकरण उचित नहीं है।” (नगेन्द्र)
नामकरण के लिए प्रमुख साहित्य की प्रवृत्ति का आधार ग्रहण करना अधिक संगत है। किंतु प्रत्येक स्थिति में किसी युग की साहित्य चेतना का द्योतन केवल साहित्यिक प्रवृति के द्वारा ही संभव है, यह मानना कम-से-कम व्यवहार में कठिन हो सकता है, और है। इसलिए इस आधार को लचीला रखना होगा और यह मानकर चलना होगा कि कोई नाम पदार्थ के संपूर्ण व्यक्तित्व का वाचक नहीं हो सकता। सामान्यतः नाम संकेत मात्र होता है विशेष परिस्थिति में प्रतिक हो सकता है, किंतु पूर्ण बिंब तो वह नहीं हो सकता। इतिहास में नाम का प्रयोग प्रतीक के रूप में करना ही अधिक संगत है, और जहां यह संभावना न हो वहां संकेत मात्र से काम चल सकता है : नाम में अशुद्ध या अस्पष्ट प्रतिकार्थ भरने या उसे बिंब का रूप प्रदान करने की चेष्टा व्यर्थ है।
आदिकाल का नामकरण
15-गणपतिचन्द्र गुप्त प्रारम्भिक कल/उन्मेष काल