एक कहानी यह भी के संदर्भ में सबसे पहले तो हम यह जान लें कि मन्नू भंडारी पारिभाषिक अर्थ में कोई सिलसिलेवार आत्मकथा नहीं लिखी है। अपने आत्मकथ्य में उन्होंने उन व्यक्तियों और घटनाओं के बारे में लिखा है जो उनके लेखकीय जीवन से जुड़े हुए हैं। संकलित अंश में मन्नू जी के किशोर जीवन से जुड़ी घटनाओं के साथ उनके पिताजी और उनकी कॉलिज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का व्यक्तित्व विशेष तौर पर उभरकर आया है, जिन्होंने आगे चलकर उनके लेखकीय व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेखिका ने यहाँ बहुत ही खूबसूरती से साधारण लड़की के असाधारण बनने के प्रारंभिक पड़ावों को प्रकट किया है। सन् 46-47 की आज़ादी की आँधी ने मन्नू जी को भी अछूता नहीं छोड़ा। छोटे शहर की युवा होती लड़की ने आजादी की लड़ाई में जिस तरह भागीदारी की उसमें उसका उत्साह, आज, संगठन-क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता है।
एक कहानी यह भी में लेखिका ने बताया है कि उनका जन्म मध्यप्रदेश के भानुपरा गाँव में हुआ था और जब वे कुछ जानने-समझने लायक हुई तो स्वयं को अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के दो मंजिला मकान में पाया। मकान के ऊपरी हिस्से में पिताजी लिखने-पढ़ने का काम करते रहते थे और नीचे परिवार के शेष सभी सदस्य रहते थे। उनकी माँ अनपढ़ थीं लेकिन घर की जिम्मेदारियों को बहुत अच्छी तरह से निभाती थीं। अजमेर आने से पहले लेखिका के पिता इंदौर में प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्ति के रूप में कांग्रेस और समाज-सुधार के कार्यों में जुटे हुए थे। वे न केवल शिक्षा का उपदेश देते थे बल्कि विद्यार्थियों को घर बुलाकर पढ़ाते भी थे। लेखिका के पिताजी का जीवन उन दिनों खुशहाल था। वे कोमल और संवेदनशील व्यक्ति होने के साथ-साथ अहंवादी एवं क्रोधी भी थे।
एक कहानी यह भी
लेखिका बताती है कि उसने अपने पिताजी को अपने टूटे हुए गुणों और आशाओं के बोझ तले दबा हुआ ही देखा है। इंदौर में आर्थिक घाटा होने के बाद वे अजमेर आ गए अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश लिखा। उन्हें सम्मान तो मिला किंतु और वहाँ उन्होंने अपनी तरह का पहला और अनुपम धन नहीं मिला। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने पर भी उनके राजशाही ठाठ-बाठ करने की अधूरी इच्छाओं ने उनको क्रोधित बना दिया और उनका यह क्रोध लेखिका की माँ पर उतरता। अपनों द्वारा किए गए विश्वासघातों ने उनको इतना शक्की और चिड़चिड़ा बना दिया कि बात-बात पर अपना गुस्सा लेखिका और उसके भाई बहनों पर उतारते।
यहाँ लेखिका अपने पिता की यशोगाथा नहीं गाना चाहती। वह तो यह बताना चाह रही है कि पिता के कौन-से गुण और दोष उसके अन्दर समाए और कौन-सी ऐसी बातें थीं जिन्होंने उनके अंदर हीनता की ग्रंथि को उत्पन्न किया। लेखिका बचपन में कमजोर थी, उनका रंग काला था जिस कारण उनके पिताजी उनकी गौर रंगी खूबसूरत बहन को चाहते थे और लेखिका की उपेक्षा करते थे। नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बाद भी लेखिका उस हीन भावना की वजह से अपने पर भरोसा नहीं कर पाती थी। लेखिका को अपने में विश्वासघातों को झेलने वाले पिताजी के शक्की स्वभाव की झलक दिखाई देती है। उन दोनों की आपस में विचारों की टक्कर भी होती थी, फिर भी पिताजी का स्वभाव लेखिका में प्रतिविम्ब के रूप में रहता था।
लेखिका ने बताया है कि उनके परिवार की लड़कियाँ जब सोलह वर्ष की हो जाती थीं और दसवीं पास कर लेती थीं, तो उनकी शादी कर दी जाती थी। लेखिका की बहन सुशीला की भी इसी योग्यता पर शादी कर दी गई थी। दोनों भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए थे। अब लेखिका को अपने अस्तित्व का बोध हुआ और पिताजी भी उसका ध्यान रखने लगे। पिताजी ने यह कहते हुए कि रसोई घर में भठियारनों का काम होता है उन्हें रसोईघर से दूर ही रखा। यदि वह उसमें काम करेगी तो उसकी प्रतिभा और क्षमता वहीं जल कर खाक हो जाएगी। लेखिका अपने घर पर होने वाली विभिन्न दलों की आपसी बहसों को सुनती थी। जब वह चाय-नाश्ता लेकर जाती तो पिताजी बहस सुनने के लिए उसे वहीं बैठा लेते थे। लेखिका 1942 के आंदोलन की पार्टियों के आपसी मतभेद से तो अनभिज्ञ थी किंतु देशभक्तों के बलिदानों से मन में एक पीड़ा रहती थी।
एक कहानी यह भी में लेखिका बताती है कि वह दसवीं कक्षा तक समझ से बाहर होते हुए भी बहसें सुनती थी और पुस्तकें पढ़ती जिस स्कूल से पढ़ना आरम्भ किया था, वही अब कॉलेज बन गया था और दसवीं पास कर जब लेखिका कॉलेज में आई तो उनकी भेंट हिन्दी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से हुई। उन्होंने लेखिका को साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करवाकर पुस्तकों के चयन, उनको पढ़कर बहस करना, साहित्यकारों के विषय में जानने की दिशा दी। कई लेखकों की रचनाओं ने उन पर विशेष प्रभाव डाला। यह समय उनकी धारणाओं के बदलने का समय था। उन्होंने शीला अग्रवाल से साहित्य के विषय में बहुत कुछ सीखा।
शीला अग्रवाल ने लेखिका की साहित्यिक सीमा को बढ़ाने के साथ-साथ उनके पिता द्वारा देश की स्थितियों के संबंध में चलाए गए कार्यक्रम में भी बढ़-चढ़कर भाग लेने का सामर्थ्य भी भर दिया। 1946-47 के दौरान अनेक तरह के विरोधों में युवाओं का जोश उमड़ा हुआ था। जोश की उस लहर में लेखिका भी शामिल जिस कारण उनके घर में उसे लेकर वातावरण गर्म हो जाता था। उन्हें केवल घर में ही होने वाली गतिविधियों में सम्मिलित होने की अनुमति थी। पिताजी का दिन भर लड़कों के साथ नारे लगाती, हड़ताले करती यह लड़की बुरी लग रही थी। लेखिका का कहना है कि जब खून में जोश होता है तब सभी बंधन, सभी डर समाप्त हो जाते हैं। इस कारण उसी समय से उनका उनके पिताजी से विरोधपूर्ण व्यवहार रहा और यह उनकी राजेंद्र यादव से शादी होने तक चलता रहा।
लेखिका के पिताजी यशप्राप्ति को महत्व देते थे। उनका सिद्धांत था कि मनुष्य को अपना एक विशेष स्थान बना कर जीना चाहिए। समाज में नाम और सम्मान होना चाहिए। एक बार कॉलेज प्रिंसिपल ने लेखिका के प्रति अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के विषय में पत्र लिखा तो पिताजी अत्यधिक क्रोधित होते हुए बोले कि यह लड़की हमारी सारी मान-मर्यादा समाप्त कराएगी और भी बच्चे थे किसी ने ऐसा नहीं किया। पिता जी गए तो गुस्से में थे लेकिन वहाँ से खुश होकर लौटे। कारण बताया कि कॉलेज की सभी लड़कियाँ केवल तीन लड़कियों के संकेत पर कॉलेज की कक्षाएं छोड़ देती थीं, जिनमें से एक लेखिका थी। उनके कारण कॉलेज चलाना मुश्किल हो रहा था। यह सब सुनकर लेखिका के पिता को अपने-आप पर गर्व हो रहा था। पूरे देश में इसी प्रकार का वातावरण बना हुआ था। पिताजी के मुख से अपनी प्रशंसा सुन कर लेखिका को आश्चर्य हो रहा था।
लेखिका ने उस घटना का उल्लेख किया है जब आज़ाद हिन्द फौज के मुकद्दमों के सिलसिले में स्कूल कॉलेज, दुकानों को बंद करने की घोषणा की गई थी और बहुत सी दुकानों को जबरदस्ती बंद करवाया गया था। सभी विद्यार्थी शाम को मुख्य चौक पर एकत्र हुए और वहाँ जमकर भाषणबाजी हुई। दूसरी तरफ लेखिका के पिताजी के एक दोस्त लेखिका के विरुद्ध पिताजी के कान भर दिये कि लेखिका का लड़कों के साथ नारेबाजी करना, हड़ताल आदि करते घूमना उचित नहीं है। उसके जाने के बाद पिताजी क्रोध की अग्नि में जलते रहे और यह निश्चय किया कि लेखिका को अब घर से बाहर नहीं निकलने देंगे।
एक कहानी यह भी
लेखिका पिताजी के क्रोध से अनभिज्ञ जब घर पर आई तो उनके पिताजी के पास उनके घनिष्ठ मित्र और अजमेर के सम्माननीय डॉ० अंबालाल जी बैठे लेखिका की तारीफ कर रहे थे। साथ ही पिताजी को बधाई देते हुए यह बता रहे थे कि उन्होंने लेखिका का भाषण न सुनकर बहुत कुछ खो दिया है। इन सब बातों से पिताजी का क्रोध शांत होता गया और चेहरा गर्व से चमकने लगा। लेखिका आज भी जब उस प्रसंग के विषय में सोचती है तो उन्हें डॉक्टर साहब का प्यार और बड़प्पन नज़र आता है कि उन्होंने उस छोटी बच्ची की इतनी प्रशंसा की थी। यह भी हो सकता है कि पचास साल पहले इतनी भीड़ और ऐसी परिस्थितियों में चौक पर खड़ी होकर किसी लड़की ने पहली बार बोला होगा। पिताजी का जीवन द्वन्द्वग्रस्त था। वे सामाजिक छवि बनाए रखने के साथ-साथ समाज अपना विशेष स्थान भी बनाए रखना चाहते थे। शायद पिताजी को यह भी पता था कि ये दोनों रास्ते एक दूसरे के विपरीत हैं।
एक कहानी यह भी में लेखिका बताती है कि 1947 में शीला अग्रवाल को कॉलेज वालों ने यह कहते हुए नोटिस दे दिया कि वे लड़कियों को भड़काने और अनुशासन को भंग करने का काम कर रही हैं। उन्होंने तीसरे वर्ष की कक्षाएँ भी बंद कर दी ताकि लेखिका और उनके साथ की एक-दो लड़कियाँ प्रवेश न लें सके। कॉलेज से बाहर रहकर भी उन्होंने ऐसा बखेड़़ा किया कि कक्षाएँ फिर से आरंभ करनी पड़ी। 15 अगस्त, 1947 की जीत एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद की जीत थी, इस जीत के आगे उनकी जीत कुछ भी नहीं थी।
एक कहानी यह भी का प्रश्न उत्तर
1. लेखिका के व्यक्तित्व पर किन-किन व्यक्तियों का और किस रूप में प्रभाव पड़ा?
उत्तर- लेखिका के व्यक्तित्व पर उनसे दो साल बड़ी उसकी बहन सुशीला, पिताजी, हिन्दी-प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का, पिताजी के घनिष्ठ मित्र डॉ० अंबालाल जी का प्रभाव पड़ा। पिताजी से उन्होंने घर और समाज दोनों जगह प्रतिष्ठा बनाए रखने की विचारधारा को अपनाया। हिन्दी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने उनमें पुस्तकों के चयन के साथ-साथ साहित्य और साहित्यकारों में रुचि उत्पन्न की। उन्होंने लेखिका को जीवन में एक नया रास्ता दिखाया। हमें यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं होता कि लेखिका के व्यक्तित्व निर्माण में शीला अग्रवाल के साथ-साथ डॉ० अंबालाल जी का था।
2- इस आत्मकथ्य में लेखिका के पिता ने रसोई को ‘भटियारखाना’ कहकर क्यों संबोधित किया है?
उत्तर– ‘एक कहानी यह भी’ आत्मकथा के लेखिका के पिता ने रसोई घर को भटियारखाना कहकर इसलिए संबोधित किया है क्योंकि उनका मानना था कि रसोईघर की भट्ठी में महिलाओं की प्रतिभा और क्षमता जल कर राख हो जाती उन्हें रसोई के कामों में उलझकर अपनी कला, प्रतिभा, इच्छाओं का दमन करना पड़ता है।
3- वह कौन-सी घटना थी जिसको सुनने पर लेखिका को न अपनी आँखों पर विश्वास हो पाया और न अपने कानों पर?
उत्तर– एक दिन कॉलेज की प्रिंसिपल ने लेखिका के घर पर पत्र भेजा, जिसमें उसके प्रति अनुशासनात्मक कारवाई करने की बात कही गई थी। पत्र पढ़ते ही लेखिका के पिताजी का चेहरा क्रोध से तमतमा गया। उन्होंने कहा कि यह लड़की हमें कहा का नहीं छोड़ेगी। प्रिंसिपल ने लेखिका को घर पर रखने का ही आग्रह किया था वे लड़कियों को जैसे-तैसे कक्षाओं में बैठाते हैं लेकिन उनके एक इशारे पर सभी लड़कियाँ कक्षाएँ छोड़कर मैदान में एकत्र होकर नारे लगाने लगती हैं। उनके कारण उन्हें कॉलेज चलाना मुश्किल हो गया था। ये सब बातें जब पिताजी बड़े खुशी भरे स्वर में बता रहे थे तो लेखिका को न तो अपनी आँखों पर विश्वास हुआ और न ही कानों पर।
4. लेखिका की अपने पिता से वैचारिक टकराहट को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर– लेखिका ने जब से होश संभाला तभी से पिताजी से उनकी किसी-न-किसी बात पर टकराव होता ही रहता था। बचपन में ही पिताजी ने लेखिका में हीनता की भावना को उत्पन्न कर दिया था। लेखिका के अंदर उनके पिताजी कुठा और प्रतिक्रिया के रूप में प्रतिच्छाया बनकर रहते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में जब लेखिका लड़कों के साथ नारे लगाती, हड़ताले करवाती शहर की सड़को पर घूमती थी तो पिताजी को सहन नहीं होता था और वे उसे ऐसा करने से मना करते थे और लेखिका को घर पर बैठने के लिए कहते लेकिन लेखिका को दूसरों द्वारा दी जाने वाली आज़ादी पसंद नहीं थी। लेखिका का कहना है कि समय चाहे हमें दूसरी दिशा में बहा ले जाए, स्थितियों का दबाव चाहे हमारा रूप बदल दे लेकिन वे हमें पूरी तरह मुक्त नहीं कर सकती।
5. इस आत्मकथ्य के आधार पर स्वाधीनता आंदोलन के परिदृश्य का चित्रण करते हुए उसमें मन्नू जी की भूमिका को रेखांकित करें।
उत्तर– सन् 1946-47 के स्वतंत्रता आंदोलन में लेखिका मन्नू भंडारी भी पीछे नहीं रही। उन्होंने छोटे शहर की एक युवा लड़की होते हुए आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। स्वाधीनता आंदोलन के अन्तर्गत जब देश भर में हड़ताल, नारेबाजी, भाषण, जलसे हो रहे थे, तब लेखिका ने अपने कॉलेज में नारों, हड़तालों और भाषणों को सिलसिला आरम्भ कर दिया। उनका उत्साह, संगठन क्षमता और विरोध करने का तरीका देखते ही बनता था कॉलेज में इतना प्रभाव था कि उनके संकेत मात्र से ही लड़कियाँ कक्षाएँ छोड़कर मैदान में एकत्र हो जाती और नारे लगाने लगती थीं। यहाँ तक कि वे शहर के चौराहों पर भी भाषण देने, हड़ताल करवाने आदि के माध्यम से विरोध-प्रदर्शन करने में बिल्कुल भी नहीं झिझकती थीं।
एक कहानी यह भी की रचना और अभिव्यक्ति
6- लेखिका ने बचपन में अपने भाइयों के साथ गिल्ली डंडा तथा पतंग उड़ाने जैसे खेल भी खेले किंतु लड़की होने के कारण उनका दायरा घर की चारदीवारी तक सीमित था। क्या आज भी लड़कियों के लिए स्थितियाँ ऐसी ही हैं या बदल गई हैं अपने परिवेश के आधार पर लिखिए।
उत्तर– लेखिका ने बचपन में अपने भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा तथा पंतग उड़ाने जैसे खेल भी खेले किंतु लड़की होने कारण उनका दायरा घर की चारदीवारी तक सीमित था। आज स्थितियाँ बदल गई हैं। लड़कियाँ केवल चारदीवारी के अन्दर खेलने-कूदने तक सीमित नहीं रह गई हैं। वे घर की दहलीज पार कर देश और विदेशों तक पहुंच गई हैं। आज लड़कियों पर लगे अंकुश धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। लड़कियाँ लड़कों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चल रही हैं। पहले जो लड़कियां घर के अन्दर रहा करती थी, आज देखने में आ रहा है कि वे खेल – कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, समाज सेवा संबंधी लगने वाले विभिन्न शिविरों में उत्साहपूर्ण भाग लेती हैं। आज लड़की अपने दब्बूपन से ऊपर उठ कर नीडरता और साहसपूर्ण कार्य करती दिखाई देती है।
7-मनुष्य के जीवन में आस-पड़ोस का बहुत महत्त्व होता है। बड़े शहरों में रहने वाले लोग प्राय: ‘पड़ोस कल्चर’ से वंचित रह जाते हैं। अपने अनुभव के आधार पर लिखिए।
विद्यार्थी स्वयं करें
8-लेखिका द्वारा पढ़े गए उपन्यासों की सूची बनाइए और उन उपन्यासों को अपने पुस्तकालय में रखिए।
विद्यार्थी स्वयं करें।
9. आप भी अपने दैनिक अनुभवों को डायरी में लिखिए।
विद्यार्थी स्वयं करें।
एक कहानी यह भी का भाषा-अध्ययन
10- इस आत्मकथ्य में मुहावरों का प्रयोग करके लेखिका ने रचना को रोचक बनाया है। रेखांकित मुहावरों को ध्यान में रखकर कुछ और वाक्य बनाएँ
(क) इस बीच पिताजी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिताजी की लू उतारी। (ख) वे तो आग लगाकर चले गए और पिताजी सारे दिन भभकते रहे। (ग) बस अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएँ। (घ) पत्र पढ़ते हो पिता जी आग बबूला हो गए ।
उत्तर
1- लू उतारना- समाज के दकियानूसी लोग हमेशा दूसरों को लू उतारने को उतारु रहते हैं।
2- आग लगाना- किसी की खुशियों में आग लगाना अच्छी बात नहीं है।
3- थू-थू करना- रोहन के द्वारा किए गए कुकृत्य पर सभी थू-थू कर रहे थे।
4- परशुराम लक्ष्मण पर आग बबूला हो गएं।
एक कहानी यह भी के अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न
प्रश्न– लेखिका को अपने वजूद का एहसास कब हुआ?
प्रश्न– लेखिका अपने भीतर अपने पिता को किन-किन रूपों में पाती थी?
प्रश्न– लेखिका अपने ही घर में हीन-भावना का शिकार क्यों हो गई थी?
प्रश्न– लेखिका का अपने पिता के साथ टकराव क्यों चलता रहा?
;प्रश्न– एक कहानी यह भी पाठ पर टिप्पणी लिखिए।
प्रश्न– देश की राजनैतिक गतिविधियों में युवा वर्ग अपना योगदान किस तरह दे रहा है?
प्रश्न– लेखिका ने कौन-कौन से उपन्यास पढ़े?
प्रश्न– वर्ष 1947 में लेखिका को कौन-कौन सी खुशियां मिली?