इस पोस्ट में बिहारी के भक्ति और दोहे की भावार्थरूपी संक्षिप्त व्याख्या को समझेंगे। यह पाठ up बोर्ड क्लास 10 के अन्तर्गत आता है। Bihari ke bhakti aur dohe ki vyakhha, बिहारी के दोहे की व्याख्या
बिहारी के भक्ति की व्याख्या व भावार्थ
संदर्भ– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक हिन्दी के भक्ति नामक पाठ से लिया गया है। जिसके कवि रितिकाल के प्रसिद्ध रितिसिद्ध कवि बिहारी हैं।
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँईं परै स्यामु हरित-दुति होइ |1|
भावार्थ- हे चतुर राधा मेरी सांसाररूपी बाधा को उसी प्रकार हर लो जिस प्रकार से आपके शरीर की परछाई पड़ते ही श्याम (श्रीकृष्ण) हरे रंग की कांति से युक्त हो जाते हैं।
मोर-मुकुट की चंद्रिकनु यौं राजत नंदनंद।
मनु ससि सेखर की अकस किय सेखर सत चंद |2|
भावार्थ- श्रीकृष्ण के सिर पर मोर मुकुट की चाँदनी इस प्रकार से सुशोभित हो रही है मानों शिवजी कृष्ण से प्रतियोगिता में अपने सिर पर सैकड़ो चन्द्रमा को धारण कर लिये हों।
सोहत ओढ़े पीतु पटु, स्याम सलौनै गात।
मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात |3|
भावार्थ- श्रीकृष्ण श्याम सलोने शरीर पर पीला वस्त्र धारण किए हुए उसी प्रकार सुशोभित हो रहे हैं मनों नीलमणि शैल पर प्रातः काल के सूर्य का पीला प्रकाश पड़ रहा हो।
अधर धरत हरि कै परत, ओठ-डीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष रंग होति |4|
भावार्थ- हरे रंग की बाँसुरी को श्रीकृष्ण जब अपने अधर पर रखते हैं तो उनके ओठ, दृष्टि और वस्त्र की चमक से वह इंद्रधनुष के समान चमकते हुए प्रतीत होती होती है।
या अनुरागी चित्त की गति सम्झै नहिं कोइ।
ज्यौं ज्यौं बूड़े स्याम रंग त्यौं-त्यौं उज्जलु होइ |5|
भावार्थ- प्रेमी व्यक्ति के हृदय की स्थिति को कोई समझ नहीं सकता है। प्रेमी हृदय का व्यक्ति जैसे-जैसे कृष्ण की भक्तिरूपी श्याम रंग में डूबता जाता है वैसे-वैसे उसके शरीर की चमक और भी बढ़ती जाती है।
तौ लगु या मन-सदन में हरि आवैं किहिं बाट।
विकट जटे जौ लगु निपट खुटैं न कपट-कपाट |6|
भावार्थ- जबतक मनरूपी घर पर कपटरूपी दरवाजा लगा है। तबतक ईश्वर मनरूपी घर में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। इसलिए यदि व्यक्ति चाहता है कि ईश्वर की कृपा उनपर बनी रहे तो व्यक्ति को अपने मन से कपट को निकालना पड़ेगा।
जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि।
ज्यौं आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि |7|
भावार्थ- जिस ईश्वर ने हमें संपूर्ण सांसारिकता का ज्ञान कराया है। उस ईश्वर को हम समझ नहीं रहे हैं। जिस आँख से हम सभी को देखते हैं उस आँख को हम नहीं देख पाते हैं।
जप, माला, छापा, तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचे वृथा, साँचे राँचै रामु |8|
भावार्थ- यज्ञ करने से, माला जपने से, रामनामी वस्त्र धारण करने से और तिलक लगा लेने से एक भी काम नहीं चलता है। अज्ञानी मन जबतक इधर उधर व्यर्थ भटकता रहेगा तबतक सच्चे राम का साक्षात्कार नहीं कर पाएगा।
बिहारी के नीति की व्याख्या व भावार्थ
दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यों न बढ़े दुख-दंदु ।
अधिक अँधेरौ जग करत, मिलि मावस, रबि चंदु |9|
भावार्थ- दो राजाओं का राज्य प्रजाओं के लिए असहनीय हो जाता है , उनका दुख दर्द और भी ज्यादा बढ़ाने वाला होता है। उसी प्रकार जिस प्रकार से अमावस का चाँद सूर्य से मिलकर और ही ज्यादा अंधेरा फैलाता है।
बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु।
भलौ भलौ कहि छोड़ियै, खोटैं ग्रह जपु दानु |10|
भावार्थ- आज के समय में जिसके अंदर बुराई है उसी को लोग सम्मान देते हैं। अच्छे व्यक्ति को भला-भला कहकर उसी प्रकार छोड़ दिया जाता है जिस प्रकार लोग अच्छे ग्रह को छोड़कर बुरे या खोटे ग्रह की पूजा करते हैं।
नर की अरु नल-नीर की, गति एकै करि जोइ।
जेतो नीचो हवै चलै, तेतौ ऊँचौ होइ |11|
भावार्थ- मनुष्य की और नल से निकलने वाले जल की स्थिति एक जैसी होती है। ये दोनों जितना ज्यादा नीचे जाते हैं उतना ही उच्चता को प्राप्त करते हैं। अर्थात् मनुष्य जितना सहनशील होता है उतना ही महान होता है नल की पाइप जितनी गहराई तक जाती है पानी उतना ही स्वच्छ आता है।
बढ़त-बढ़त संपति-सलिलु, मन सरोजु बढ़ि जाइ।
घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ |12|
भावार्थ- संपत्तिरूपी जल के बढ़ने के साथ-साथ मनरूपी कमल भी बढ़ जाता है। जल के घटने के साथ-साथ कमल घटता नहीं बल्कि वह कुम्हला कर सूख जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संपत्ति बढ़ने के साथ-साथ व्यक्ति की इच्छायें भी बढ़ जाती हैं। ये बढ़ी हुई इच्छाएँ संपत्ति के कम होने के बाद कम नहीं होती हैं।
जौ चाहत, चटक न घटै, मैलौ होइ न मित्त ।
रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह-चीकनो चित्त |13|
भावार्थ- बिहारी कहते हैं कि यदि चाहते हो मित्रता की चमक कम न हो और मित्रता मैली न हो तो प्रेमरूपी चिकने हृदय को राजसी ठाट-बाट से स्पर्श करने से बचना चाहिए।
बुरौ बुराई जौ तजै, तौ चितु खरौ डरातु
ज्यौं निकलंकु मयंकु लखि गर्नै लोग उतपातु
भावार्थ- बिहारी कहते हैं कि जैसे दुष्ट प्रवृत्ति का व्यक्ति बुराई को त्याग देता है तो शुद्ध हृदय वाला व्यक्ति ऐसे लोगों से डरते हैं क्योंकि दुष्ट व्यक्ति के एकाएक हृदय परिवर्तन पर विश्वास नहीं होता है। वैसे ही चंद्रमा को कलंकरहित देखकर लोग किसी भयंकर आपदा का अनुमान लगा लेते हैं। क्योंकि चंद्रमा का कलंकरहित होना किसी बड़ी समस्या का सूचक है।
स्वारथु सुकृतु, न श्रमु बृथा, देखि, बिहंग बिचारि।
बाज, पराऐं पानि परि, तूं पच्छीनु न मारि।।15।।
भावार्थ- हे बाज तू दूसरे के वशीभूत होकर स्वार्थ के कारण अपनी जाति के पक्षियों को हानि पहुँचा रहा है। ऐसा करने से तुम्हारा श्रम व्यर्थ जा रहा है। तुम्हारे इस प्रकार के कुकृत्य को पक्षी बेचारे दयालु दृष्टि से देख रहे हैं।